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________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [७४३ (८) मधु-अर्थात् शहद भी अभक्ष्य है। मधु-मक्खियाँ अनेक वनस्पतियों के फूलों के रस को इकट्ठा करके उम पर बैठती है । भील, कोल आदि असंस्कारी जाति के लोग आग लगा कर, धुआं करके मक्खियों को उड़ाते हैं और मक्खियों द्वारा बड़ी मुसीबत से तैयार किये हुए छत्ते को तोड़कर, मात्मा का अकल्याण करने वाले मास का सेवन वही करेगा जो नरक का मेहमान बनना चाहता है और राक्षस के समान है। योऽत्ति यस्य यन्मासमभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥ अर्थात्-जोमांस खाता है और जिसका मांस खाया जाता है, विचार कीजिए उन दोनों में कितना अन्तर हैं ? माप सान वाले की क्षण भर के लिए तप्ति होती है और जिसका मांस खाया जाता है वह बेचारा घोर कष्ट भोगता हुअा अपने पाणों से हाथ धो बैठता है ? ___कुछ लोग कहते हैं-हम अपने हाथों से हिंसा नहीं करते, तैयार मांस खरीद कर खा लेते हैं । ऐसा करने से हमें क्या दोष लगता है ? किन्तु उनका यह कथन अज्ञानपूर्ण है, क्योंकि मांस खाने वाला भी उस हिंसा का अनुमोदक और सहायक है । मनुस्मृति में कहा है: अनुमन्ना विशसिता, निहन्ता क्रयविक्रयो । संस्कर्ता चोपहर्ता च, खादकश्च ति घातकाः॥ अर्थात्-(२) प्राणी के वध की आज्ञा देने वाला (२) शरीर पर घाव करने वाला (३) मारने वाला (४) खरीदने वाला (५) बेचने वाला (६) पकाने वाला (७) परोसने बाला (८) खाने वाला, यह पाठों घातक है। मांस भक्षयिताऽमत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मासस्य मोसत्वं निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥ अर्थात-निरुक्ति से मनुजी ने मांस का अर्थ इस प्रकार कहा-मा-मुझ को, स:वह प्राणी परलोक में खायगा, जिसका मांस मैंने इस लोक में खाया है । तात्पर्य यह जो मनुष्य इस जीवन में जिसका मांस खाता है वह प्राणी आगामी जीवन में उसको खायगा। आमासु य पक्कासु य, विपच्यमाणासु मंसपेसीसु । आयंतियमुववाओ, भरिणी दु णिगोयजीवाणं ॥ अर्थात-दिगम्बर जैन श्राम्नाय के ग्रंथ में कहा है-कच्चे मांस में, पकाये हुए मांस में, पकाये जाते हुए मास में-मांस की प्रत्येक अवस्था में उसमें अनन्त निगोदिया जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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