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________________ ® सागारधर्म-श्रावकाचार ® - - पहले व्रत के पाँच अतिचार (१) बन्ध-अर्थात् किसी जीव को बंधन में बाँधे तो प्रतिधार लगता है । जैसे-पुत्र, भ्राता, स्त्री, मित्र, शत्रु, दास, दासी आदि मनुष्यों को, गाय, बैल, भैंस, अश्व आदि पशुओं को, तोता, मैना, मुर्गा आदि पक्षियों को, साँप, अजगर आदि अपदों को इत्यादि किसी भी प्रकार के प्राणी को रस्सी, डोरी, साँकल, खोड़ा, बेड़ी, कोठा, कोठरी, सर, टोपला, टिपारा आदि बंधनों में डालने से अतिचार लगता है। क्योंकि बंधन में गले हुए जीव विवश होकर अति कष्ट पाते हैं, घबराते हैं, तड़फते है। ऐसा निर्दय कृत्य श्रावक को करना उचित नहीं है। कदाचित् कोई मनुष्य किसी अपराध के कारण दण्ड का पात्र हो, तथा कोई पशु काबू में न रहता हो, किसी प्रकार की हानि करता हो और वचन की शिक्षा मात्र से न समझता हो और बन्धन में डालना अनिवार्य हो जाय तो भी ऐसे मजबूत बन्धन से नहीं बाँधना चाहिए जिससे गड्ढा पड़ जाय, बह घर. उधर हिल-डुल न सके, कदाचित् प्राग मादि का उपद्रव हो जाय तो छूट कर अपना बचाव न कर सके। मजबूत-गाढ़े बन्धन से बाँध देने पर कदाचित् जीव की मृत्यु हो जाय तो पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा का पाप लगता है। तथा साधु सापेक्ष अर्थात् सप्रयोजन और निरपेक्ष अर्थात् निष्प्रयोजन-दोनों प्रकार की हिंसा के त्यागी होते हैं, जब कि श्रावक सिर्फ निष्प्रयोजन हिंसा के हो त्यागी होते हैं । वे सप्रयोजन हिंसा का त्याग नहीं करते, इसलिए बढ़ाई विस्वा में से सवा विस्वा दवा ही श्रावक की रहती है। किसी के किसी वस्त को भोगने का प्रत्याख्यान हो और वह उसे भोगने का विचार करे तो अतिक्रम, उसे भोगने की तैयारी करे-प्रयत्न करे तो व्यतिक्रमः उसे 'भोगने के लिए ग्रहण कर ले तो अतिचार और उसे भोग ले तो अनाचार समझना चाहिए। अतिक्रमःका पाप पश्चात्ताप से, व्यतिक्रम का पाप भालोयगासे, अतिचार का पाप प्रायमित से और अनाचार का पाप मूल तोच्चार करने से दूर होता है। इन चार प्रकार के पापों में से पतों के प्रतिकारों को तीसरे प्रकार का पाप समझना चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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