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________________ ६८६ j * जैन-तत्व प्रकाश * पक्षियों का पालन करना भी श्रावकों के लिए योग्य नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से उनकी प्रिय स्वतन्त्रता में बाधा पड़ती है और इस कारण वे कष्ट का अनुभव करते हैं। पीजरे में डाल कर पक्षियों को मेवा-मिष्टान आदि खिलाया जाय तो भी वे बन्धन में सुखी नहीं रहते। घायल हुए पक्षी को उसकी रक्षा के निमित्त अगर पीजरे में रखना पड़े तो अतिचार का पाप नहीं लगता, क्योंकि ऐसी स्थिति में पीजरे में रखने वाले की भावना पषीको बन्धन में डालने की नहीं किन्तु उसकी रक्षा करने की होती है। बहीवात पशुओं आदि के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। किन्तु आराम हुए पाद उसे बन्धन से मुक्त कर देना चाहिए। (२) वध-किसी भी मनुष्य और पशु पर प्रहार करे, उसे मार-पीटे तो यह अतिचार लगता है । जैसा कि पहले पहले अतिचार में कहा है, कोई अपराधी वचन और बन्धन से भी न समझता हो, अथवा पशु आदि सीधे रास्ते न चलता हो और उसे लकड़ी, चाबुक आदि से प्रहार करने का अवसर प्राप्त हो जाय तो भी ऐसा निर्दय होकर न मारे कि जिससे उसके अंग पर घाव पड़ जाय, रक्त निकल आय, वह मूर्छित होकर पड़ जाय । साथ ही जिस स्थान पर एक बार प्रहार किया हो, उसी स्थान पर दूसरी बार प्रहार न करे, सिर, गुदा, गुप्तेन्द्रिय, हड्डी आदि मर्मस्थानों पर प्रहार नहीं करे, क्योंकि ऐसे मर्मस्थानों पर मारने से उसे बहुत कष्ट होता है। (३) छविच्छेद-चमड़ी का, अंगोपांग या किसी अवयव का छेदन'भेदन करे तो अतिचार लगता है। कितने ही अज्ञानी जन गाय, भैंस, बैल, घोड़ा आदि को अपनी आज्ञा में चलाने के लिए उसकी नासिका छेद कर नथ पहनाते हैं, लोहे की काँटेदार लगाम लगाते हैं, पैरों में कीलेंनाल लगवाते हैं, तथा शोभा के निमित्त या पहचान के लिए लोहे के त्रिशल चक्र आदि तपा कर उनके अंग पर चिपका कर चिह्न बना देते हैं, कुते भादि के कानों का छेदन करते हैं, पँछ काट लेते हैं, सींग काटते हैं, गुप्तेन्द्रिय का छेदन करते हैं, अण्ड फोड़ते हैं। ऐसे निर्दयतापूर्ण कृत्य श्रावक को कदापि नहीं करना चाहिए। कदाचित् रक्तविकार, फोड़ा
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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