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________________ ६८४] ® न-तत्वं प्रकाश यथासंभव बचाव करना ही चाहिए और कन्दमूल आदि अनन्त काय का तो स्पर्श भी नहीं करना चाहिए-भक्षण करने की तो बात ही क्या है। अगर कोई पंचेन्द्रिय जीव कान, आँख श्रादि किसी एक इन्द्रिय से हीन होता है अर्थात् बहिरा या अंधा होता है अथवा गूंगा या लूला-लँगड़ा होता है तो दयालु मनुष्य उस पर दया दिखलाते हैं । तोबेचारे पाँच स्थावर जीव तो चार इन्द्रियों से हीन हैं । अतः वे भी दया के पात्र होने चाहिए । बेचारे स्थावर जीव कर्मोदय के अधीन हैं, अपने किये कर्मों का फल भोग रहे हैं, वे अपनी रक्षा के लिए प्रयत्न नहीं कर सकते, अपना दुःख दूसरों को नहीं सुना सकते, किसी से फरियाद नहीं कर सकते; अतएव इस दृष्टि से वे और भी अधिक दया के पात्र हैं । उन पर जो दया भाव नहीं रखते, जो उनका घात करते हैं उन्हें कर्मबंध होता ही है। इस प्रकार समझ कर विवेकवान् श्रावक यथासंभव स्थावर जीवों की भी रक्षा करते हैं और निष्प्रयोजन हिंसा से तो सदैव बचते रहते हैं ।* अन्य में कहा है कि साधुजी बीस विस्वा दया पालते हैं । श्रावक की दया साधुजी की दया की अपेक्षा सवा विस्खा होती है। जीवा सुहुमा थूला संकप्पारंभो भवे दुविहा । सावराह-निरवराहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ।। . अर्थ-साधुजी त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की दया पालते हैं, मगर 'श्रावक से स्थावर जीवों की दया पलना कठिन है, अतएव २० विस्वा में से १० विस्वा कम हो गये । साधुजी संकल्पजा (मारने के इरादे से की हुई) हिंसा और प्रारम्भजा (संसार के कृषि, व्यापार आदि कार्यों में होने वाली) हिंसा-दोनों के त्यागी होते हैं किन्तु श्रावक सिर्फ संकल्पना हिंसा के त्यागी होते हैं। प्रारंभजा हिंसा के त्यागी नहीं होते, अतः दस विस्वा में से पाँच विस्वा और कम हो गये । साधुजी तो सापराध और निरपराध दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं, किन्तु श्रावक सिर्फ निरपराध जीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं, सापराध की हिंसा के त्यागी नहीं होते। क्योंकि राजा, आदि भी इस व्रत का आचरण करते हैं और उनको संग्राम आदि का प्रसंग भी प्राप्त हो जाता है। अन्य श्रावकों को भी चोर डाकू आदि का सामना करने प्रादि का प्रसंग प्राप्त हो जाता है, तथा. शत्रु मारने भावे तो उसे मारने का प्रसंग आ जाता है । इत्यादि कारणों से सापराध की हिंसा का त्याग करना कठिन होता है, अंत पोचविस्का में से अंदाई विस्वा की ही दया रह गई।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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