SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 729
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सागारधर्म - श्रावकाचार * [ ६८ कितनेक ज्ञान लोग विवाहोत्सव दीपावली आदि के प्रसंग पर क्षणिक मजा लूटने के लिए आतिशवाजी छोड़ते हैं। उससे प्रतिवर्ष सैकड़ों मनुष्यों की मृत्यु के समाचार सुने जाते हैं, फिर अन्य जीवों की हिंसा का तो कहना ही क्या है ? इसलिए यह भी अनर्थ का कारण है। दीपावली के अवसर पर एक ओर लक्ष्मी के आगमन के लिए लक्ष्मी की पूजा की जाती है और दूसरी ओर आई हुई लक्ष्मी में आग लगाई जाती है ! भला इस प्रकार लक्ष्मी कैसे आ सकती है ? 1 1 तमाखू पीने का व्यसन भी बहुत बढ़ गया है। वास्तव में तमाखू में कोई स्वाद नहीं है । खाने पीने और सूँघने वाले के मुंह से और नाक से दुर्गंध निकलती है । हाथ में और कलेजे में दाग पड़ जाते हैं । कलेजा जल जाता है। क्षय आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं और कदाचित् अकाल मृत्यु भी हो जाती है । इत्यादि हानियाँ जानते हुए भी हुक्का, चिलम, बीड़ी, सिगरेट आदि पीने वाले लोगों को बुद्धिमान् कैसे कहा जाय ? श्रावक को इस प्रकार का अग्नि का आरंभ नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार धर्मार्थ भी धूप, दीप यज्ञ-हवन आदि नहीं करना चाहिए। चून्हा, भट्टी, सिगड़ी, दीपक आदि का सांसारिक आरंभ भी यथासंभव घटाना चाहिए । (४) वायुका - पंखा करने से, झूला झूलने से, बाजा बजाने से, फूँक मारने से, टक-पटक करने से और खुले मुँह बोलने से वायुकाय को हिंसा होती है। वायु के पट्टे में आकर त्रस जीव भी मर जाते हैं। ऐसा सोच कर जितना संभव हो, वायुकाय का बचाव करना चाहिए । (५) वनस्पतिकाय - इसके मुख्य तीन भेद हैं, यथा- (१) गेहूँ, चना, बाजरा आदि धान्य तथा सूखे बीज और गुठली आदि में एक जीव होता है । (२) हरे फूल, फल, भाजी, तुख, पत्ता, डाली आदि के सूचिका भाग जितने टुकड़े में असंख्यात जीव होते हैं और (३) कन्दमूल आदि में अनन्त जीन होते हैं। सचिच वस्तु भोगने का त्याग हो सके तो बहुत अच्छा, किन्तु श्रम के बिना तो काम चलना कठिन है, फिर भी हरितकाय के भक्षण से तो
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy