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________________ ६६६ ] * जैन- तव प्रकाश बन्धन हो और पूर्वोपार्जित कर्म शिथिल हो जायँ और उनसे शीघ्र ही छुटकारा मिल जाय । (१२) सुदृष्टि-इन्द्रियों से विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों का अवलोकन करके अन्तःकरण को मलीन न बनावे, किन्तु ऐसे पदर्थों की ओर से अपनी दृष्टि हटा लेवे । सौम्यदृष्टि ढलते नेत्रों से रहे। अपनी दृष्टि को सदा पवित्र रखे | (१३) गुणानुरागी - ज्ञानी, ध्यानी, जपी, तपी, संयमी, शुद्ध क्रिया के पालक, ब्रह्मचारी, क्षमावान्, धैर्यवान्, धर्मप्रभावक, दानवीर इत्यादि -: पुरुषों के सद्गुणों पर अनुराग रक्खे, इनका बहुमान करे, माहात्म्य बढ़ावे, यथाशक्ति सहायता करे, उनके गुणों को प्रदीप्त करे । समझे कि हमारे श्रहो - भाग्य हैं क्रि. हमारे कुल में, ग्राम में या समाज में ऐसे-ऐसे गुणवान् सज्जन विद्यमान हैं । इनके सम्बन्ध से अपने कुल की तथा धर्म की उन्नति होगी । इत्यादि विचार करके उनके गुणों का प्रेमी और प्रशंसक बने । (१४) उपवर- न्याय और न्याय का पक्ष ग्रहण करे और अन्याय तथा अन्याय का पक्ष छोड़ देवे । यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि पहले तो रागद्वेष करने की मनाही की है । श्रव न्यायी का पक्ष लेने और अन्याय का पक्ष छोड़ने को कहा है। तो ऐसा करना राग-द्वेष हुआ "कि नहीं ? इसका समाधान यह है कि अमृत को अमृत और विष को विष समझने में या कहने में राग-द्वेष नहीं समझना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जिस वस्तु का जैसा यथार्थ स्वरूप समझता है, वैसा ही कहता है। जब अच्छे-बुरे का यथार्थ स्वरूप समझेगा तभी बुरे को छोड़ कर अच्छे को स्वीकार कर "सकेगा। तभी आत्मा का सुधार कर सकेगा। इसलिए श्रावक को न्यायपक्षी अवश्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्रावक के माता-पिता, श्री, पुत्र, मित्र आदि स्वजन चारों धर्मात्मा होने से भी श्रावक, सुपचयुक्त कहलाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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