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________________ सागारधर्म-श्रावकाचार (E) दक्ष-अर्थात् खूब विचक्षण हो । दृष्टि डालते ही मनुष्य को एवं कार्य को समझ जाय । अवसरोचित कार्य करने वाला हो और ऐसा होशियार रहे कि पाखण्डियों के छल में न फँसे । (8) लज्जालु-अनन्तज्ञानी की और गुरुजनों की लज्जा रखता हुआ गुप्त रूप से या प्रकट रूप से कभी कुकर्म का आचरण न करे, व्रतों को भंग न करे । लज्जा सर्व गुणों का प्राभूषण है। जो लज्जा त्याग कर निर्लज्ज हो जाता है उसके पतन की सीमा नहीं रहती। (१०) दयालु–दया ही धर्म का मूल है। ऐसा जानकर समस्त जीवों पर दया रक्खे,* दुखी जीवों को देखकर अनुकम्पा लावे, यथाशक्ति सहायता करके उनका दुःख दूर करे, मरते हुए को बचाने का प्रयत्न करे । (११) मध्यस्थ-अच्छी-बुरी बातों को सुनकर तथा अच्छी-बुरी वस्तुओं को देख कर राग-द्वेषमय परिणाम न धारण करे, किसी भी पदार्थ में गृद्धि धारण न करे, क्योंकि राग, द्वेष और गृद्धि ही चिकने कर्म-बन्धन के मुख्य कारण हैं ।* अतएव सब पदार्थों में और अच्छे-बुरे बनावों में मध्यस्थ रहे । रूक्ष-शुष्क वृत्ति धारण करके रहे, जिससे चिकने कर्मों का * अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसोम् । उदारचरिताना तु, . वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ . अर्थात्-यह मेरा है और यह पराया है, ऐसा विचार तुच्छ बुद्धि वालों का होता है । श्रेष्ठ जन तो सारे संसार को ही अपना कुटुम्ब समझते हैं । जो समहष्टि जीव है, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर से न्यारोहे,ज्यों धाय खिलावे बाल । . . अर्थात्-जिस प्रकार धाय, बच्चे का लालन-पालन करती हुई भी अन्तस में समझती है कि यह बच्चा मेरा नहीं हैं। जब तक मैं इसे दूध पिलाती हूँ, तब तक यह मुझे माता मानता है । द्ध छूटा कि फिर मेरा नाम भी नहीं लेगा । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कुटुम्ब का पालन-पोषण करते हुए भी अन्तरंग में सब को परायाही समझता है। उनमें मोह, ममता वापासक्ति धारण नहीं करता।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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