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________________ ६६४ ) * जैन-तत्त्व प्रकाश ® इन तीनों प्रकारों के निन्दनीय कार्यों का परित्याग करके श्रावक जगत् का प्रेम-पात्र बनता है। (५) अक्रूर-क्रूर अर्थात् निर्दय एवं कठोर दृष्टि और कठोर स्वभाव का त्याग करके सरल स्वभावी हो, गुणग्राही हो । पराये छिद्र देखने वाले का चित्त सदैव मलीन रहता हैं। इसलिए अन्य के छिद्र कभी न देखे, अपने अवगुण देखा करे, जिससे नम्र बना रहे । (६) भीरु-लोकापवाद से तथा पाप-कर्म से और नरक आदि दुर्गतियों के दुःख से सदैव डरता रहे । पापकर्म का तथा लोकविरुद्ध कार्य का कभी आचरण न करे। (७) अशठ—जैसे मूर्ख भली-बुरी वस्तु में गड़बड़ कर देता है, वैसे श्रावक पुण्य-पाप के कार्य में गड़बड़ न करे । धर्म और अधर्म के फल को तथा पुण्य और पाप के फल को पृथक-पृथक् समझ कर अधर्म को घटावे तथा धर्म और पुण्य की वृद्धि करे। (३) मदिरापान भी शुद्धि का, बल का, धन का और प्रतिष्ठा का नाशक है । मदिरा पीने वाला बेभान हो कर माता और बहिन के साथ भी व्यभिचार करने पर उतारू हो जाता है और क्लेश बढ़ाता है । वह आगे नरक का अतिथि बनता है। (४) वेश्यागामी भी जाति से और धर्म से भ्रष्ट होकर अपनी बुद्धि, धन, आवरू आदि का नाश करके सुजाक, प्रमेह आदि भयानक बीमारियों से सड़ कर अकालमृत्यु का ग्रास बन कर नरक में जाता है। (५) शिकार करने वाला अनाथ, गरीब, निरपराध, बेचारे घास-पानी पर निर्वाह करने वाले जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जीवों की हिंसा करता है। वह भागे नरक में जाकर यमों का शिकार बनता है। (६-७) चोरी और जारी (परस्त्रीगमन) करने वाला मी जगत् में सब का निन्दनीय बन कर, राजा और पंचों का अपराधी होकर, अकाल मृत्यु से मरकर नरक को जाता है। इस प्रकार यह सातों व्यसन दोनों लोकों में दुःखदाता होने के कारण उभयलोकविरुद्ध हैं। इनका त्याग श्रावक को अवश्यमेव करना चाहिए । इनके वशवत्ती हुआ मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर पाता।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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