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________________ ® सागारधर्म-श्रावकाचार ® [ ဖ (१५) सुदीर्घदृष्टि-श्रावक अच्छी और दरगामिनी दृष्टि वाला हो। श्रावक किसी भी कार्य के अन्तिम फल पर दीर्घ दृष्टि से विचार करता है। जो कार्य भविष्य में आत्मिक गुणों का लाभ कराने वाला हो, सुखदाता हो, प्रामाणिक पुरुषों द्वारा श्लाघनीय हो, वही कार्य करता है । निन्दनीय और दुःखप्रद कार्य वह नहीं करता। विना विचार किये भी कोई कार्य नहीं करता, क्योंकि ऐसा करने वाले को भविष्य में पश्चाताप करना पड़ता है। . (१६) विशेषज्ञ-गाय का और आक का दूध रंग में एक-सा होता है, सोना और पीतल भी रंग से समान ही होते हैं, मगर उनके गुणों में आकाश-पाताल जितना अन्तर होता है। इस अन्तर की परीक्षा विशेषज्ञविज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं। वे ऊपरी दिखावे के भ्रम में नहीं पड़ते किन्तु भीतर के गुणों की जाँच करके निर्णय करते हैं। इसी प्रकार श्रावक भी नौ तत्त्व आदि के विषय में विशेषज्ञ बन कर उनमें से जानने योग्य को जानते हैं, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करते हैं और त्यागने योग्य का स्याग करते हैं। . . ..... ... . (१७) वृद्धानुग-श्रावक वयोबद्ध और गुणवद्ध की मात्रा में, रहने वाला हो । अर्थात् उनके अच्छे चाल-चलन को स्वीकार करे, यथाशक्ति उनके अनुसार प्रवृत्ति करे, यथासम्भव उनकी सेवा-चाकरी करने वाला हो। साथ ही युद्ध जनों के ज्ञानादि गुणों का अनुकरण करने वाला भी हो। (१८) विनीत–कहा है-'विणो जिणसासणाल' अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के शासन का मूल विनय ही है। ऐसा जान कर माता, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, और शिक्षक आदि गुरुजनों को यथोचित विनय करे और सब के प्रति ना होकर रहे। (१६) कृतज्ञ-नीतिकारों का कथन है कि जो दूसरों के किये उपकारों को नहीं मानता है, ऐसा कृतम पृथ्वी के लिए मारभूत है। इस कथन को ध्यान में रख कर जो अपने ऊपर किंचित् भी उपकार करे, उसे महान्
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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