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________________ * सागारधर्म श्रावकाचार * [ ६५२ बीज वृद्धि पाता है । अथवा जैसे पानी में डाला हुआ तेल का बूँद फैल जाता है, उसी प्रकार किसी-किसी की आत्मा में एक पद का पढ़ाया हुआ ज्ञान अनेक पद रूप परिणत हो जाता है। उसे बीजरुचि कहते हैं । (६) अभिगमरुचि - किसी जीव के श्रुतज्ञान की विशुद्धि होने से वह अंग, उपांग, पन्ना, आदि सूत्रों का अभ्यास करते-करते विशुद्ध ज्ञान प्राप्त होने से सम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसे अभिगमरुचि कहते हैं । ऐसा श्रुतज्ञानी अगर दूसरे को ज्ञान सुनाता है और उस श्रोता को अगर सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है तो उसे भी अभिगमरुचि कहते हैं । (७) विस्ताररुचि - जीवादि नौ तत्वों का, धर्मास्तिकाय आदि पट् द्रव्यों का, नैगम आदि सात नयों का नाम आदि चार निक्षेपों का, प्रत्यक्ष आदि चार प्रमाणों का, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से, विस्तारपूर्वक अभ्यास करते-करते जिस सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह विस्तार रुचि कहलाता है । 8 (c) क्रियारुचि - क्रियाओं का पालन कर-करते, प्रतिदिन आचारक्रिया की विशुद्धि करते-करते, सम्यक्त्व की प्राप्ति होना क्रियारुचि है। 7 (६) संक्षेपरुचि - कितनेक लघुकर्मी जीव धर्म-अधर्म का कुछ भी भेद न जानते हुए, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी की तरह सभी को मानते हैं। वे कदाचित् पुण्ययोग से सत्संगति को प्राप्त करके सद्ज्ञान श्रवण करने का सुयोग मिलने से, सद्गुणों का संक्षिप्त कथन श्रवण करके तत्काल भाव-भेद को समझ जाते हैं और मिथ्यात्व का परित्याग करके सद्धर्म को अंगीकार कर लेते हैं । वह संक्षिप्तरुचि वाला कहलाता है । (१०) सम्यक्त्व आदि सूत्रधर्म, व्रत आदि चारित्रधर्म तथा क्षमा आदि यतिधर्म, इत्यादि प्रकार के धर्मों का कथन शास्त्र में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार उसका श्रद्धान करके आराधन करने की रुचि हो, तथा धर्मास्विकाय आदि छह द्रव्यों के सूक्ष्म भावों का, गांगेय धनगार आदि के मांगों का श्रवण करके, संदेह रहित सत्य श्रद्धान करके उत्साहपूर्वक धर्म क्रिया का आचरण करने वाले को धर्मरुचि समझना चाहिए ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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