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________________ १५.] ® जैन-तत्व प्रकाश जिनधर्म के प्रति रुचि प्राप्त कर लेता है और धर्म को स्वीकार कर लेता है। किसी-किसी अन्यमतावलम्बी अज्ञान-तपस्वी को अपने अज्ञान-तप के प्रभाव से कर्म का कुछ क्षयोपशम होता है, जिससे उसे विभंग ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तब वह जैनधर्म की विशुद्ध प्रवृत्ति देख कर जैनधर्म का अनुरागी बन जाता है। शुद्ध श्रद्धा प्राप्त होने पर उसका अज्ञान, अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है । इस तरह दूसरे के उपदेश के बिना ही जो सम्यक्त्व प्राप्त हो, वह निसर्गरुचि कहलाता है। (२) उपदेशरुचि-तीर्थकरों का, केवलज्ञानियों का, मुनियों का या श्रावक आदि का उपदेश श्रवण करने से जीवादि नौ पदार्थों का यथातथ्य स्वरूप समझ लेने पर धर्म करने की जो रुचि जागृत हो, उसे उपदेशरुचि (३) आज्ञारुचि-राग, द्वेष, मिथ्यात्व, अज्ञान आदि दुर्गुणों का नाश करके प्रात्मा को ज्ञान आदि सद्गुणों में स्थापित करने वाली, अनन्त भवभ्रमण के दुःखों का नाश करने वाली, मुक्तिमार्ग में प्रवृत्त करने वाली, अनेक गुणों की खान जिनेश्वर भगवान् की जो श्राज्ञा है, उसे आराधने की, उसी के अनुसार प्रवृत्ति करने की इच्छा होना आज्ञारुचि कहलाती है। (४) स्त्ररुचि-श्री जिनेश्वरप्रणीत, गणधर आदि द्वारा रचित द्वादशांग आदि जो सूत्र हैं, उनका श्रवण पठन करते-करते, उनमें गर्मित ज्ञान को अनुभव में परिणमाते हुए, ज्ञान के अपूर्व, अद्भुत रस में प्रात्मा तल्लीन हो जाय और उत्साहपूर्वक उसी का वार-वार श्रवण-पठन करने की उत्कंठी जागृत हो उसे सूत्ररुचि कहते हैं । (५) वीजरुचि-जैसे हल, बखर आदि से शुद्ध किये हुए, खाद आदि से पुष्ट किये हुए, पानी से तृप्त हुए काली मिट्टी के खेत में डाला एभी बीज का एक दाना, अनेक दानों के रूप में प्रकट होता है, उसी प्रकार विषय काय कम करने से शुद्ध बने हुए, गुरु-उपदेश से पोषण किये हुए, सन्तोष आदि गुणों से इस धने भव्य जीव के हृदय रूपी खेत में डाला हुआ ज्ञान Ty.
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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