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________________ ६५२ ] * जैन-तव प्रकाश जैसे ज्वर का नाश होने पर मनुष्य को भोजन की रुचि जागृत होती है और रुचिपूर्वक किया हुआ भोजन सुखकारक होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप ज्वर का नाश होने पर दस प्रकार के धर्म का आराधन करने की रुचि जागृत होती है और रुचिपूर्वक-उत्साह-पूर्वक आचरण किया हुमा धर्म यथार्थ फलदायक होकर आत्मा को अक्षय सुखी सम्यक्त्वी को हितशिक्षा श्री प्राचारांगसत्र के प्रथम श्रतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन में श्रमण भगवान श्री महावीर ने सम्यक्त्वी जनों को निम्नलिखित हितशिक्षा दी है: (१) भूत, भविष्य और वर्तमान काल के सभी तीर्थंकरों का फरमान है कि.प्राणियों की (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की), भूत (वनस्पतिकाय) की, जीव (पंचेन्द्रिय) की और सत्व (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय और पायुकाय की) किंचिन्मात्र भी हिंसा न होना, उन्हें किंचित् भी दुःख न होना ही सत्य सनातन शुद्ध धर्म है। यह धर्म रागियों को, त्यागियों को, भोगियों और योगियों को सभी को एक-सा आदरणीय है। (२) उक्त प्रकार के धर्म को स्वीकार करके उसके पालन में कदापि प्रमादशील नहीं होना चाहिए, किन्तु निरन्तर सुदृढ़, अचल भाव से पालन-स्पर्शन करना पाहिए । (३) मिथ्यात्वियों द्वारा किये हुए आडम्बर या पाखण्डाचार को देखकर व्यामोह नहीं पाना चाहिए। (४) संसार में रहे हुए सम्यक्त्वियों को मिथ्यात्वियों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। (५) जो मिथ्यात्वियों का अनुकरण नहीं करता, उससे कुमति सदैव दूर रहती है। (६) उक्त धर्म पर श्रद्धा न होना ही सब से बड़ी कुमति है। (७) सब तीर्थंकरों ने केवलशान से जानकर और मणधरों ने श्रवण से सुनकर और हृदयचन से देख कर उस धर्म का आदेश दिया है। (८) संसारी प्राणी मिथ्यात्व के काश मेंस कर ही मनन्त संसार-भ्रमण करते हैं। (इ) तत्त्वदर्शी महात्मा वही
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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