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________________ ६४८ ] जैन-तत्व प्रकाश के लिए मूस में स्वर्ण को स्थापित करके, क्षार और अग्नि के प्रयोग से मृत्तिका को जला कर शुद्ध स्वर्ण निकाल लेता है, उसी प्रकार (१) ज्ञान रूप स्वर्णकार ने जाना कि अष्टकर्म मृत्तिका में आत्मा रूप सुवर्ण मिला हुआ है । इसे अलग निकालना उचित है। तब (२) सब गुणों के भाजन सम्यक्त्व रूपी मूस में श्रात्मा को स्थापित करके (३) आत्मा के कर्म- मल को पृथक् करने वाले चारित्ररूपी सुहागे के क्षार का प्रयोग मिलाकर अर्थात् चारित्रधर्म को स्वीकार करके (४) कर्मरूपी मल को जला कर भस्म करने वाले तप रूप अंगारे के प्रयोग से अर्थात् बाह्य तप से बाह्य उपाधि को भस्म करे और आभ्यन्तर तप से आभ्यन्तर उपाधि को भस्म करे । यों आत्मा और परमात्मा की एकता रूप ध्यान से, धर्म रूप मृत्तिका को आत्मा रूप सोने से अलग करे । कर्मों का अलग हो जाना ही मोक्ष प्राप्त करना कहलाता है 1 जिस प्रकार इधर-उधर भटकने वाला जन स्वस्थान को प्राप्त करके सुखी बनता है, उसी प्रकार अनादिकाल से मिध्यात्व - मार्ग में भ्रमण करने वाला आत्मा उक्त षट् स्थानों का विचार करके, सद्धर्म के स्वरूप को यथातथ्य समझ करके, सम्यक्त्व स्थान में स्थिर हो सुखी होता है । श्रद्धा ३, लिंग ३, विनय १०, शुद्धता ३, लक्षण ५, दूषण ५, भूषण ५ प्रभावना ८, यतना ६, आगार ६, स्थानक ६ और भावना ६, यह सब मिल कर व्यवहार सम्यक्त्व के ६७ बोलों से सम्यक्त्व के स्वरूप का पूरी तरह ज्ञान हो जाता है । सम्यक्त्व की १० रुचि (१) निसर्गरुचि - गुरु आदि के उपदेश के बिना ही, सम्यक्त्व का आवरण करने वाली प्रकृतियों का चय, क्षयोपशम या उपशम हो जाने से मूस पावक सोहागी, फूंके तना उपाय । राम चरन चारों मिले, मैल कनक का जाय ॥
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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