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________________ ॐ सम्यक्त्व [१४७ फल-स्वरूप सुख-दुःख जीव को अवश्य भुगतने पड़ते हैं। एक उदाहरण और लीजिए । मिर्च जड़ है। उसे यह विचार नहीं होता कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करनी चाहिए। फिर भी जो मिर्च खाता है उसका मुँह चरपरा अवश्य होता है। इसी प्रकार जड़े होने पर भी कर्म शुभाशुभ फल अवश्य प्रदान करते हैं । (५) आत्मा को मोक्ष है-कितनेक लोग आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उसे कर्ता और मोक्ता भी मानते हैं, किन्तु वे कहते हैं कि जैसे यह संसार अनादि अनन्त है, उसी प्रकार आत्मा का और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि अनन्त है । कर्म करना और उनके फल भोगना, यह सिलसिला अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । जो पदार्थ आदि वाला होता है उसी का अन्त हो सकता है। जो प्रमादि हैं उसका अन्त भी नहीं हो सकता । ऐसा मानने वाले को समझना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं कि जो अनादि है वह अनन्त ही होना चाहिए । अनादि का भी अन्त हो सकता है। उदाहरणार्थ-कोई पुरुष बालब्रह्मचारी हो तो उसका पितृपरम्परा का सम्बन्ध तो अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु उसके पुत्र न होने से वह सम्बन्ध टूट जाता है। इस प्रकार हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि अनादि काल से चले आने वाले सिलसिले का अन्त भी हो जाता है। मृत्तिका और सुवर्ण आदि धातुओं का सम्बन्ध तो अनादि से है किन्तु अग्नि, क्षार, सुहागा आदि के संयोग से वह अनादि का सम्बन्ध भी नष्ट हो जाता है और सुवर्ण अपने शुद्ध रूप में पा जाता है। इसी प्रकार आत्मा भी अनादि कालीन कर्म-सम्बन्ध को नष्ट करके अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है। आत्मा का पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में आ जाना ही मोक्ष है। अतः आत्मा का मोक्ष नहीं हो सकता, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। (६) मोक्ष का उपाय है-उक्त कथन श्रवण करके मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्त करने के उपाय जानने की अभिलाषा स्वाभाविक होती है। उन्हें जानना चाहिए कि जिस प्रकार स्वर्णकार मृत्तिका से सुषर्ण को पृथक करने
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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