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________________ * जैन-तस्व प्रकाश ६४६ ] के शरीर में जो कर्म किये, उनका फल इस जन्म में भोगता है और इस जन्म में जो कर्म कर रहा है, उनका फल भविष्य में भोगेगा । इस प्रकार शरीर का रूपान्तर होता है, फिर भी आत्मा नित्य है । निश्चित रूप से मानना चाहिए कि श्रात्मा का कभी विनाश नहीं होता । 1 (३) श्रात्मा कर्ता है— कई लोग आत्मा की नित्यता को तो स्वीकार करते हैं किन्तु यह मानते हैं कि श्रात्मा स्वाधीन नहीं है, ईश्वर के अधीन है । ईश्वर की आज्ञा के अनुसार अर्थात् ईश्वर की इच्छा से ही संसार के सारे काम होते हैं । वे यह युक्ति देते हैं कि श्रात्मा स्वाधीन होता तो दुखी क्यों होता ? कोई भी जीव अपनी इच्छा से दुःख नहीं भोगना चाहता । 1 1 आत्मा कर्त्ता नहीं है । ऐसा कहने वालों को समझना चाहिए कि अगर ईश्वर ही कर्त्ता है, आत्मा कर्त्ता नहीं है, तो कर्मों का फल भी ईश्वर ही को भोगना चाहिए, आत्मा को फल नहीं भोगना चाहिए, क्योंकि 'करंता सो भरंता' अर्थात् जो कर्म करता है वही फल भोगता है । कर्म तो करे ईश्वर और फल भोगना पड़े आत्मा को, यह न्यायसंगत बात नहीं है । अगर ईश्वर फल का भोक्ता मान लिया जाय तो आत्मा में और ईश्वर में कोई भेद ही नहीं रहेगा । पिछले प्रकरण में इस विषय की विस्तारपूर्वक चर्चा की जा चुकी है। जिज्ञासु पाठक उस पर मनन करें । (४) श्रात्मा भोक्ता है - उक्त युक्तियों से कोई-कोई यह मान्य करते हैं कि आत्म कर्त्ता तो है, किन्तु कर्म जड़ होने के कारण गमनागमन नहीं कर सकते । इसलिए किए हुए सब कर्म यहीं रह जाते हैं । अर्थात् जीव के साथ नहीं जाते हैं । इस कारण किये कर्मों का फल भोगने वाला आत्मा ऐसा मानने वालों से कहा जाता है कि कर्म जड़ है, यह तो ठीक हैं, किन्तु जैसे मदिरापान करने वाले के साथ मदिरा का शीशा नहीं जाता है, फिर भी मदिरा पीने वाला जहाँ कहीं भी जाता है वहीं मदिरा के गुण क परिया यथासमय उसे अवश्य प्राप्त होता है । इसी प्रकार कृत कर्म क माला प्रदेशों के साथ परिणत होकर जीव के साथ जाता है और उसके
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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