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________________ ॐ सम्यक्त्व [६४५ हैं, वे भी उतने के उतने ही रहेंगे । न तो एक भी जीव कम हो सकता है, न एक भी परमाणु कम हो सकता है। परमाणुओं में मिलने और बिछुड़ने का गुण है, अतएव जड़ को विनाशशील कहते हैं । जीव में रूपान्तर तो होता है, मगर जीव के प्रदेशों में मिलने-विछुड़ने का धर्म नहीं है । अर्थात् किसी जीव के कुछ प्रदेश उससे अलग नहीं हो सकते और न दूसरे जीव में मिल सकते हैं । इस दृष्टि से कहा जाता है कि आत्मा शाश्वत है। आत्मा में जो रूपान्तर होता है वह यही कि कभी आत्मा मनुष्य के शरीर में रहता है, कभी पशु के शरीर में, कभी पक्षी या कीड़े के शरीर में । किसी भी शरीर में आत्मा चला जाय, मगर उसका एक भी प्रदेश न्यूनाधिक नहीं होता। अगर मात्मा की उत्पत्ति और विनाश माना जाय, क्षण-क्षण में उस का पलटना स्वीकार किया जाय तो धर्म-अधर्म पुण्य-पाप आदि का फल भोगने वाला कोई नहीं रहेगा। किसी आत्मा ने धर्म का आचरण किया और वह उसी क्षण नष्ट हो गया तो फिर उस धर्म का फल कौन भोगेगा ? इस प्रकार पाप का फल भोगने वाला भी कोई नहीं रहेगा। अगर इस मत को सच्चा मान लिया जाय तो न्यायाधीश किसी को सजा ही नहीं दे सकेगा। क्योंकि अपराध करने वाला आत्मा उसी समय नष्ट हो गया और जिसे दंड दिया जा रहा है वह दूसरा ही है। इसी प्रकार संसार का लेन-देन आदि सभी व्यवहार बिगड़ जायगा । किसी साहूकार से किसी मनुष्य ने ऋण लिया । साहूकार उससे ऋण चुकाने का तकाजा करेगा तो ऋणी कहेमा-लेने वाला और देने वाला तो क्षणविनश्वर था। वह लेते-देते समय ही नष्ट हो चुके । अब आप दूसरे हैं और मैं भी दूसरा हूँ। ऐसी हालत में मैं आपको ऋण कैसे चुकाऊँ ? आत्मा एक भव से दूसरे भव में जाता है, ऐसा माने विना काम नहीं चल सकता। अनेक प्रमाणों से इस बात की पुष्टि होती है । बच्चा उत्पन्न होते ही स्तन-पान की इच्छा करता है । चूहे और बिल्ली में बिना कारण ही वैर होता है। यह सब बातें पुनर्जन्म को सिद्ध करती हैं । जीव ने पूर्व जन्म
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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