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® जैन-तत्त्व प्रकाश
सम्यक्त्व रूपी भाजन ही धारणं कर सकता है। जैसे भाजन के बिना भोजन नहीं ठहरता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना धर्म नहीं ठहरता ।
(६) सम्यक्त्व धर्म-किरियाने का कोठा है- मजबूत और साफ-सुथरे कोठे में बादाम आदि किरियाना रख दिया जाय तो कीड़ों, चूहों और चोरों श्रादि से सुरक्षित रहता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व रूपी स्वच्छ कोठे में यदि धर्मक्रिया रूप किरियांना स्थापित किया जाय तो मिथ्यात्व रूपी कीड़े, विषय रूपी चूहे और कषाय रूपी चोर उसे बिगाड़ या हरण नहीं कर सकते । सम्यक्त्व ही धर्म का रक्षक है ।
शास्त्रों में सम्यक्त्व की बड़ी महिमा बतलाई गई है। समकिंत के अभाव में ही श्रास्मा अनादि काल से भव-भ्रमण कर रहा है । समकित होने पर ही आत्मा का उत्थान होता है । सम्यक्त्व के अभाव में धर्माचरण नहीं होता । अगर होता भी है तो वह संसार का ही कारण बनता है। संसार से मुक्त होने का सम्यक्त्व के अभाव में कोई उपाय नहीं है। प्रशाधरजी ने कहा है:
मस्त्वेऽपि पशूयन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः ।
पशुत्वेऽपि नरायन्ते, सम्यक्त्वग्रस्तचेतनाः ॥ अर्थात्-मिथ्यादृष्टि जीव मनुष्य होने पर भी पशु के समान हैं। जैसे पशु में अपने हित-अहित का विशिष्ट विवेक नहीं होता, उसी प्रकार मिथ्यात्वी के मन में भी हित-अहित का विवेक नहीं होता। इसके विपरीत सेम्यक्त्व से विभूषित पशु भी मनुष्य के समान है, क्योंकि उसमें हितअहित का विवेक उत्पन्न हो जाता है। शरीर में जो स्था, नेत्र का है। अध्यात्म शास्त्र में वही स्थान सम्यक्त्व का है। अतएव आत्म-कल्याण के अभिलाषी पुरुषों को सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करके उसका निर्मल रूप से पालन करना चाहिए और उसकी महिमा की सदा ध्यान में रखने के लिए उल्लिखितं छह भावनाएँ भीनी चाहिएं। ऐसा करने से उनकी आत्मों निर्मल बमंगी और क्रिया को श्रीद सचि बागृत होगी।