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________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश ६.४० ] है । इसलिए सम्यक्त्वी को चाहिए कि जब कभी ऐसा कोई विकट प्रसंग उपस्थित हो और दूसरे प्रकार से सम्यक्त्व का बचाव होता न दीखे तथा विरुद्धाचरण करना ही पड़े तो मन में ऐसी भावना रक्खे कि अगर मैं पहले साधु 'हो गया होता तो दोष लगाने का प्रसंग ही न आता ! वे महापुरुष धन्य हैं जो इससे भी अधिक भयंकर प्रसंग आने पर भी लेशमात्र विचलित नहीं होते ! मुझे धिक्कार है कि मैं इस नाशवान् शरीर की रक्षा के लिए यह कृत्य कर रहा हूँ । मेरे लिए वह दिन परम कल्याणमय होगा जब कि मैं पूर्ण रूप से निर्मल सम्यक्त्व का पालन करूँगा और दोष के इस कारण से निवृत्त होकर आत्मसाक्षी से या गुरु आदि की साक्षी से इस दोष आलोचना - निन्दा करके, प्रायश्चित लेकर अपने सम्यक्त्वरत्न को पुनः निर्मल बना लूँगा । ग्यारहवाँ बोल - भावना बह w प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिए भावना - बल की परमावश्यकता होती है । कहा भी है: — 'यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी' अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होती है । अतएव अपनी भावना को शुद्ध बनाये रखने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए । भावना को सुधारने के लिए निम्नलिखित छह बातों पर लक्ष्य रक्खा जाय atara ने सम्यक्त्व में निश्चलता प्राप्त कर सकता है । (१) सम्यक्त्व धर्मवृक्ष का मूल है - जिस प्रकार वृक्ष का मूल (जड़) अगर मजबूत होता है तो वह वायु आदि का उपद्रव होने पर विनष्ट नहीं होता । वह शाखाओं, प्रशाखाओं, पत्रों, पुष्पों, फलों से सम्पन्न और विविध -प्रकार से सुख देने वाला होता है। इसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष का मूल सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व अगर दृढ़ हुआ तो धर्मात्मा पुरुष मिथ्यात्व रूपी वायु के उपद्रव से पराभूत नहीं होता-अचल बना रहता है । उसमें कीर्त्ति रूपी शाखाएँ लगने से वह विशाल बनता है । दया रूप पत्रों की छाया, सद्गुण स्त्री शुष्य
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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