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________________ ६३३ से चलायमान नहीं होते, उन्हें आश्चर्य या अफसोस नहीं होता । तथा वर्त्तमान में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार वे सुधार कर सकते हैं और ज्योतिष विद्या के प्रभाव से तथा अनुमान प्रमाण से भविष्य के ज्ञाता होने के कारण दुष्काल, रोग आदि उपसर्गों से अपने को तथा अपने धर्मबंधुओं को बचाकर सुखी कर सकते हैं । इसी प्रकार कालज्ञान में कुशल पंडित मृत्यु का समय निकट आया जान कर समाधिमरण द्वारा अपने तथा अन्य के आत्मा का कल्याण साध सकता है । * सम्यक्त्व * (५) दुष्करतपःप्रभावना - दुष्कर- कठिन तप से भी धर्म की बड़ी प्रभावना होती है । अन्यमतावलम्बी सिर्फ अन्न का त्याग करके मेवा, मिठाई फल, कन्दमूल आदि का भरपेट भक्षण करके तप समझ लेते हैं। ऐसे ही इस्लामधर्म के अनुयायी रात्रि में पेट भर खाकर, दिन में भूखे रहने में तप समझते हैं । ऐसा करने वालों को भी कितनेक लोग धन्य-धन्य कहते हैं। ऐसी स्थिति में निराहार उपवास - तप को देख-सुनकर उनका श्राश्रर्ययुक्त होना स्वाभाविक है । इसलिए उपवास, बेला, तेला, भठाई, पचोपवास, दिया है, जो सर्प का भी वाचक है । (६) पृष्ठ ६७.पर गोरोचन का नाम गोलोचन दिया है, जिसका दूसरा अर्थ है - गाय की आँख । (७) पृष्ठ १०६ पर आँवले को 'अंडे' कहा है और अण्डे पक्षी के भी होते हैं । (८) पृष्ठ १२१ पर चित्रक का नाम चित्ता है । (६) पृष्ठ ३२० पर गरणी का नाम कोयल है । इसी प्रकार इन्द्राणी, शकाणी, मर्कटी, शुका, वानरी, लाल मुर्गी, कोकिला, देवी, चण्डा, काकजंघा, काकनाशिका, दासी, राजहँसी, हंसराज, हंसपदी, पार्वती (काली), पुत्रजीवी, कौन्तेम, कृष्ण, गोशृङ्ग, नाग (सीसा), मयूर ( मोरथूता) घवा की भाजी अनेक नाम हैं। सुवा तोते को भी कहते हैं। उर्दू भाषा में उड़द को ite कहते हैं और संस्कृत में 'भाष' कहते हैं । कहाँ तक गिनाएं, पशुओं, पक्षियों और मनुष्यों के नाम की अनेक औषधियाँ हैं । इसलिए शास्त्र के शब्दों का यथार्थ और यथोचित अर्थ ही समझना चाहिए । महादयालु जैन गृहस्थ भी स्वप्न में भी उक्त अभक्ष्य वस्तुओं की इच्छा नहीं करते तो फिर साधुओं और तीर्थंकरों का तो कहना ही क्या है ? अर्थात् जैनधर्म के अनुयायी मांस, मच्छ, मदिरा का आहार कदापि नहीं करते हैं । यह बात निश्चित है और सत्य है । उक्त विषय पर विशेष प्रकाश डालने वाली रचनाएँ हैं - 'रेवतीदान-समालोचना', 'जैनदर्शन श्र माँसाहार' आदि । जिज्ञासुजन उन्हें पढ़ें ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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