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________________ ® जैन-तत्त्व प्रकाश समा मासोपवास, यावत् षट्मासोपवास करना तथा आयु का अन्त निकट आया जानकर, जीवन-पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का और उपधि का परित्याग कर देना, इत्यादि तपश्चर्या के द्वारा सम्यक्त्वी जैन धर्म की प्रभावना करते हैं। (६) सर्वविद्याप्रभावना-विद्या ही समस्त जगत् के पदार्थों को प्रकाश में लाने वाली है । अतएव अनेक विद्याओं का ज्ञाता भी धर्म का प्रभावक होता है । जो अनेक भाषाओं और लिपियों का ज्ञाता है, वह सर्वज्ञ भगवान् की वाणी को उन भाषाओं और लिपियों में परिणत करके जनता के समक्ष उपस्थित करता है। इससे उन भाषाओं के ज्ञाता लोगों को धर्मतत्त्व का ज्ञान होता है और धर्म की ओर उनका चित्त आकर्षित होता है । फलस्वरूप धर्म का प्रभाव बढ़ता है। इसके अतिरिक्त जो वैद्यकविद्या, मंत्रविद्या प्रादि विभिन्न विद्याओं का स्वयं ज्ञाता होता है, वह किसी अन्य के किये चमत्कार से मोह को प्राप्त नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि या संयत जन अपनी उदरपूर्ति के लिए या मानप्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उन विद्याओं का प्रयोग नहीं करते, मगर जब धर्म की हानि होते देखते हैं तब विद्याओं का प्रयोग करते हैं और धर्म का उद्योत करते हैं। (७) प्रकट व्रताचरणप्रभावना-दुष्कर व्रतों का आचरण करने से भी धर्म का अच्छा प्रभाव पड़ता है। क्योंकि संसार में ममता को मारना बड़ा ही कठिन कार्य माना जाता है और वास्तव में है भी कठिन । व्रत का आचरण करने के लिए ममता को मारना पड़ता है। ममता मारे बिना व्रतों का माचरण नहीं हो सकता । अतएव ममत्व-विजयी सम्यग्दृष्टि, धर्म की प्रभावना के एक मात्र उद्देश्य से, न कि मान-सन्मान की इच्छा से, महोत्सवपूर्वक, बड़े जनसमूह के सामने, शक्ति के अनुसार जोड़ा सहित ब्रह्मचर्य व्रत को अंगीकार करे, रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करे, सविध वनसति का त्याग करे, सचिच पानी पीने का त्याग करे। इस
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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