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________________ ७ सम्यक्त्व (४) त्रिकालत्रप्रभावना-भूत, भविष्य और और वर्तमान, इस प्रकार तीनों कालों की घटनाओं को जानने वाला भी प्रभावक हो सकता है । (१) सूयगडोगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन में कहा है-'अमज्जमंसासिणो' अर्थात् साधु मद्य और मास के त्यागी होते हैं । (२) प्रश्नव्याकरणसूत्र के चौथे संवरद्वार में कहा है-'महुमज्जविगइपरिचत्त'. अर्थात् मधु, मद्य आदि विगय को त्याग करे । (३) उत्तराध्ययनसूत्र के पाँचवें और उन्नीसवें अध्ययन में ठाणांगसूत्र में तथा अन्य बहुत-से शास्त्रों में मांसभक्षी को अज्ञानी कहा है। नरकगामी बतलाया है। दशवैकालिकसत्र के पाँचवें अध्ययन में मदिरा-पान के बहुत दोष बतलाये हैं। मदिरापान करने पाले को भी नरकगामी बतलाया है। इसलिए जैनधर्मी मांस, मच्छ, मदिरा आदि जैसी अभक्ष्य वस्तुओं के भोगी कदापि नहीं होते। ऐसी स्थिति में सत्र में मांस, मत्स्य, अस्थि (महि) वगैरह जो शब्द पाये जाते हैं, उनका असली अर्थ दूसरा हैं। वहाँ मास का अर्थ वनस्पति के फलों का तथा फलियों का गिर (गूदा) समझना चाहिए। (१) दशबैकालिकसूत्र के अध्ययन ५, गाथा १३ में फल की गुठली को 'अष्टि' कहा है । (२) पचवणास्त्र के प्रथम अध्ययन के सूत्र १२ में फल के गिर को 'मंस' कहा है। (३) पावणा के इसी पद में दो प्रकार के वृक्ष कहे हैं-एगडिया, बहुअट्ठिया, अर्थात् एक गुठली वाले और बहुत गुठलियों वाले । (४) हेमचन्द्राचार्यकृत कोष में 'तिक्तारिष्टा कटर्मत्स्या' इस प्रकार मत्स्य नामक वनस्पति कही है। (५) 'शब्दचिन्तामरिण' नामक गुजराती शब्दकोष में मत्स्यगधा, मत्स्यंडी, मत्स्यपिसा, मत्स्याक्षी, मत्स्यागी, मत्स्यादनी, ऐमी पाँच वनस्पतियों मत्स्य के नाम की कही हैं । (६) प्राचारोगसूत्र के पिण्डैषणाध्याय के पाठवें उद्देशक में फलों के धोवन-पानी लेने का वर्णन है । वहाँ यह भी कहा है कि पानी में 'भाई अर्थात गुठलियाँ हों तो निकाल दे। (७) प्रश्नव्याकरणसूत्र के चौथे संवरद्वार में 'मच्छंडी' कही है सो वहाँ मच्छ के अंडों का अर्थ नहीं है, किन्तु मिश्री-शक्कर अर्थ है। इत्यादि उदाहरणों से निश्चय कीजिए कि शास्त्र में साधु के आहार ग्रहण के प्रकरण में 'मंस' शब्द पाया है तो वहाँ फल का गिर अर्थ समझना चाहिए। जहाँ 'मच्छ' शब्द भाया है, वहाँ मच्छ नामक वनस्पति अथवा पानी में उत्पन्न होने वाले सिघाड़े आदि फल समझना चाहिए। जहाँ 'पट्टि' या 'अडिय' शब्द आया हो वहाँ गुठली अर्थ समझना चाचिए। भगवतीसत्र के पाठ पर भी थोड़ा विचार कर लेना उचित है । श्रमण भगवान् महावीर को लोहीठाण की बीमारी हो गई थी। उसके इलाज के लिए भगवान् ने सिंह अनगार को भेजकर मिढिया ग्राम की रेवती नामक गाथापत्नी के घर से औषध मँगवाई। इस विषय में भगवतीसत्र में यह पाठ है
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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