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________________ १३० * जैन-तत्त्वप्रकाश (२) धर्मकथा प्रभावना-धर्मकथा के द्वारा प्रभावना करे । व्याख्यान उपदेश द्वारा भी धर्म का अच्छा प्रभाव फैलाया जा सकता है । अतएव सम्यक्त्वी सभा-सोसाइटी में, समितियों और परिषदों में तथा विभिन्न प्रकार के सम्मेलनों में, जहाँ-जहाँ जनसमूह उपस्थित हो, वहीं जाकर द्रव्य क्षेत्र काल भाव को देख कर सब की समझ में आने योग्य भाषा में रोचक और प्रभावशाली शब्दों में, जिनप्रणीत धर्म के तच्चों का, अनेक मत-मतान्तरों के प्रमाणों, युक्तियों और तर्कों के उद्धरण देकर स्याद्वादशैली से, सरल शब्दों में, महत्त्व प्रकट करे। जिससे श्रोताओं के हृदय में सच्चे जिनधर्म का प्रभाव अंकित हो जाय। (३) निरपवाद प्रभावना-अनन्त ज्ञानियों द्वारा प्रणीत शास्त्रों के वाक्य संक्षिप्त और बहुअर्थी होते हैं। उनमें शब्द थोड़े किन्तु अर्थ विशाल होता है । अतएव जिसने भलीभाँति चिन्तन-मनन किया हो, ऐसे गीतार्थ के सिवाय प्रत्येक की समझ में आना सरल नहीं है । अतएव कोई अनभिज्ञ पुरुष विपरीत अर्थ करके, जैनमार्ग का अपवाद करता हो तो सम्यक्त्वी का कर्तव्य है कि वह सच्चे अर्थ को प्रकाशित करके उस अपवाद को दूर करे । इली प्रकार कोई मिथ्या आडम्बर करने वाला पाखण्डी जन सम्यग्दृष्टियों को भ्रष्ट करने के लिए उद्यत हुआ हो तो संवाद तथा शक्ति द्वारा उसे पराजित करके उन्हें भ्रष्ट होने से बचावे । इस प्रकार धर्म सम्बन्धी प्रत्येक अपवाद को निवारण करना भी प्रभावना है ।* ® वर्तमान में अनेक पाश्चात्य बिद्वान् जैनशास्त्रों का महत्व समझने लगे हैं, इस कारण उन्होंने जैनसूत्रों के अंगरेजी, जर्मन आदि भाषाओं में अनुवाद किये हैं। किन्तु कितनी ही जगह अर्धमागधी भाषा के गुह्य अर्थ की पूरी समझ न होने के कारण उन्होंने अर्थ का अनर्थ कर दिया है, जिससे परम दयाल जैनों पर भी मांस-मदिरा भोजी होने का कलंक लगाने का उन्होंने साहस किया है। इस अपवाद का निवारण करने के लिए पहले भी कतिपय विद्वानों ने खूब प्रयत्न करके भ्रम दूर किया है। इसका विशेष स्पष्टीकरण पण्डित मुनिवर्य श्रीमोहनलालजी द्वारा रचित प्रश्नोत्तर मोहनमाला' के उत्तरार्ष में किया है। यहाँ उसका थोड़ा-सा उल्लेख करते हैं: आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में पाठ है-'मंसगं मच्छगं भोच्दा अद्वियाई कंटए गहाय से ते जाव परिवेज्जा । अर्थात्-मांस और मच्छ तो ला जाना किन्तु हड्डी और काटों को लेकर यतना से डाल देना । यह अर्थ झूठा है, क्योंकि
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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