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________________ * सम्यक्त्व* कोई-कोई भोले भाई संकट के समय सोचने लगते हैं कि-जब से मैं धर्म करने लगा तभी से मुझ पर यह दुःख पा रहा है । इस भ्रमपूर्ण विचार से वे धर्म को कलंकित करते हैं और वज्र-कर्मों का उपार्जन कर लेते हैं। उन्हें समझाना चाहिए कि-'भाइयो ! इतना तो निश्चय ही समझो कि धर्म करने से कभी दुःख नहीं हो सकता । यह दुःख जो हुआ है सो पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम है। सो जैसे हड्डी का ज्वर, औषध का प्रयोग करने से, उभर कर बाहर आ जाता है और जैसे जुलाब के प्रयोग से पेट में संचित मल बाहर निकलता है, उसी प्रकार धर्म के प्रयोग से आत्मा की शुद्धि के लिए तथा कष्टों का नाश होने के लिए ही यह कर्म उभर के आरहे हैं । जो मनुष्य जुलाब से घबरा कर कुपथ्य का सेवन कर लेता है, वह बहुत दुःख पाता है। इसी प्रकार जो कर्मोदय से घबरा कर धर्मभ्रष्ट हो जाता है और कुमत ग्रहण कर लेता है वह भी दोनों भवों में अनन्त दुःखों को प्राप्त होता है । अतएव स्मरण रखना चाहिए कि अशुभ कर्मों का नाश हुए विना सुख की प्राप्ति होती ही नहीं है। यह दुःख, सुख का साधक है। इसलिए थोड़े समय तक इस दुःख को भोग कर सुखी बनने का मार्ग साफ कर लेना चाहिए। 'दुःखान्ते सुखम्' अर्थात् दुःख का अन्त होते ही सुख तैयार है। इस प्रकार के उपदेश से तथा सहायता के द्वारा धर्म से विचलित होते हुए भाइयों को जो धर्म में निश्चल बनाता है, वह अपने सम्यक्त्व को भूषित करता है। (५) धर्म में धैर्यवान् होना-चौथे बोल में धर्म से चलित होने वाले को धेय बंधाने के लिए कहा, किन्तु 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे पाचरहिं ते नर न धनेरे' अर्थात् दूसरों को उपदेश देने वाले तो संसार में बहुत मिल सकते हैं, किन्तु उस उपदेश के अनुसार स्वयं चलने वाले थोड़े ही मिलेंगे। * परोपदेशवेलाया, शिष्टा सर्वे भवन्ति । विस्मरन्ति हि शिष्टत्वं, स्वकार्ये समुपस्थिते ।। अर्थात् दूसरों को उपदेश देते समय तो सभी कुशल बन जाते हैं. किन्तु जब अपने उपर वीतती है तो उस उपदेश को भुला देते हैं। -मानवधर्मशास्त्र ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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