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________________ ® जैन-तत्त्व प्रकाश किन्तु संकट के समय जो सन्त, सतियाँ या श्रावक आदि धर्म पर दृढ़ रहे हैं, उनके संकट किंचित् काल में टल गये, उनके दुःख दूर हो गये और वे महान् सुख के अधिकारी बन गये। इसके सिवाय संसार में वे अपना नाम अमर कर गये। शास्त्रों में, कथाओं में, ढालों में ऐसे ही दृढ़धर्मी जनों का नाम आता है, जिन्होंने संकट के समय धर्म का पालन सुख के समय से अधिक किया है । कर्म को हटाने वाला और संकट को काटने वाला एक मात्र धर्म ही है, दूसरा कोई नहीं। इसलिए संकट से मुक्त होने का उपाय यही है कि संकट के समय अधिक उत्साह के साथ धर्माराधन किया जाय । धर्म की आराधना से संकट उसी प्रकार दूर भाग जाता है, जैसे सामना करने से कुत्ता भाग जाता है। बन्धु ! तुम धर्म करने को प्रवृत्त हुए हो सो कर्म रूपी शत्रु को हटाने के लिए मानों कर्मों के सन्मुख हुए हो। इसलिए अब कर्मशत्रुओं को हटा कर अक्षय सुख रूप राज्य को प्राप्त कर लेना ही तुम्हारा कर्तव्य है । अब यह जो कर्म उदय में आये हैं सो मानो वे तुम्हें सुख रूप राज्य देने के लिए तुम्हारे सन्मुख आये हैं। वे तुम्हारी योग्यता की परीक्षा कर रहे हैं। इस परीक्षा से तुम्हें घबराना नहीं चाहिए। जो क्षत्रिय एक बार संग्रामभूमि में पाकर भाग जाता है, उसकी बड़ी खराबी होती हैं। इसी प्रकार तुम अगर कर्मोदय से डरकर भाग जानोगे अर्थात् धर्म से च्युत हो जाओगे तो तुम्हारी भी फजीहत होगी। अर्थात् नरक और तिर्यच गति में, इस प्राप्त दुःख से भी अनन्तगुणा दुःख भुगतना पड़ेगा। अगर इस समय दृढ़ रह कर थोड़े-से संकट को समभाव से सहन कर लोगे, धर्म में दृढ़ता रक्खोगे तो थोड़े ही काल में अशुभ कर्म नष्ट हो जाएंगे और सदा के लिए परमानन्द के स्वामी बन जाओगे। ज्यों-ज्यों ताप लगता है, सुवर्ण त्यों-त्यों चमकदार और शुद्ध बनता जाता है किन्तु पीतल काला पड़ता जाता है । अपने को तो सुवर्ण के समान ही होना उचित है। कहत 'अमोल' जिन वचन हृदय तोल, समता सौ कर्म तोड़े सो ही सुख पाये हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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