SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 671
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® सम्यक्त्व ® [६२५ का तथा साधु का भेष धारण करके, कल्पित गपोड़ों से भोले लोगों को भ्रम में डाल कर ठगाई करते हैं। वे अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए मन्त्र, यंत्र, औषध आदि करते हैं। कई तो व्यभिचार जैसे कुकर्मों का सेक्स करके धर्म को भी कलंकित करते हैं । ऐसे लोगों की करतूत देख कर भोले लोग सच्चे साधु और श्रावक को भी ठग समझ कर श्रद्धाहीन हो जाते हैं । जो साधु और श्रावक के गुणों का ज्ञाता होगा, वह ऐसे ढोंगियों के भ्रम में नहीं फंसेगा, क्योंकि वह परीक्षापूर्वक ही उनका मान-सन्मान करेगा। वह निगुनों का संसर्ग मात्र भी नहीं करेगा और ढोंगियों को पदभ्रष्ट करके जैनधर्म की ज्योति को जागृत रक्खेगा। वह स्वयं धर्म में दृढ़ रहेगा और दूसरों को भी दृढ़ बनाएगा। (४) धर्म से चलायमान को स्थिर करना-कोई साधु, श्रावक या सम्यक्त्वी, किसी अन्यमतावलम्बी के सहवास से, धर्म से च्युत हो जाय, तो सम्यग्दृष्टि का कर्चव्य है कि वह उसे धर्म में दृढ़ बनावे । अगर वह स्वयं उसकी शंका का निराकरण करने में समर्थ हो तो स्वयं निराकरण करे। यदि स्वयं समर्थ न हो तो किसी विशेषज्ञ गीतार्थ के योग से, संवाद द्वारा शंका का समाधान करावे। अगर कोई किसी संकट में पड़ कर धर्मभ्रष्ट हो रहा हो या हो गया हो और उसका संकट दूर करने में स्वयं समर्थ हो तो उसे स्वयं संकट से मुक्त करे। यदि स्वयं समर्थ न हो तो अन्य की सहायता से उसके संकट को दूर करके उसे फिर धर्म में दृढ़ करे । कदाचित संकट दूर करने का कोई उपाय न हो तो उसे समझाये कि हे भाई ! कर्मगति बड़ी विचित्र है । तीर्थकर और चक्रवर्ती जैसे लोकोत्तर और लौकिक महापुरुषों * को भी कर्म ने नहीं छोड़ा, तो अपनी क्या कथा ? * आदिनाथ अब बिना मास द्वादश रहे, महावीर साढ़े वारा वर्ष दुःख पाये हैं। सनत्कुमार चक्री कोदी वर्ष सात सौ लों, ब्रह्म चक्री अन्य रहि नरक सिधाये हैं । इत्यादिक इन्द्र औ नरिंद कर्मवश बने, विडम्बना सही तेरी गिनती कहलाये हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy