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________________ * जैन-तत्व प्रकाश * %3 सेवा-भक्ति में भी लाभ समझना चाहिए । श्रावक की करणी की सज्झाय में कहा भी है स्वामी वत्सल करजे घणा, सगपण मोटा स्वामी तणा। । अर्थात्-माता, पिता, भ्राता, स्त्री, पुत्र आदि का सांसारिक सगपण (सम्बन्ध) तो स्वार्थ का है । वह आत्मोद्धार के कार्य में विघ्नरूप है, किन्तु सहधर्मी भाइयों का सम्बन्ध पारमार्थिक और आत्मोद्धार के कार्य में सहायक है । यहाँ स्वामी का अर्थ है-तीर्थङ्कर भगवान् । तीर्थङ्कर भगवान के सम्बन्ध से, उनके सभी उपासक हमारे सम्बन्धी हैं। धर्म का यह सम्बन्ध महान् सम्बन्ध है। इन सम्बन्धियों पर यथोचित वत्सलता का भाव रखना चाहिए। इस प्रकार विचार कर सम्यग्दृष्टि साधर्मियों की वत्सलता-सेवाभक्ति करने में तत्पर रहते हैं । ज्ञान के इच्छुकों को पुस्तक आदि ज्ञान के उपकरण देते हैं। तथा तपस्वी श्रावक के लिए उष्ण पानी ला देना, तैल प्रादि का मालिश कर देना, बिछौना बिछा देना, वस्त्रों का प्रतिलेखन कर देना, धारणा-पारणा सम्बन्धी साता उपजाना, विशेषज्ञ धर्मोपदेशक को सुख-साता पहुँचाना अनाथों अपंगा गरीबों को द्रव्य, आहार,व स्त्र आदि मावश्यक वस्तुओं की सहायता देना, आजीविका लगा देना, व्यापार में यथायोग्य सहायता करना, सत्कार-सन्मान करके धर्माराधन में उत्साही बनाना, मादि-आदि धर्मवृद्धि एवं उपकार के कार्यों में यथाशक्ति सहायता करते ही रहते हैं। इस प्रकार वे स्वयं सेवा-भक्ति करते हैं और दूसरों से भी कराते हैं। (३) तीर्थ के गुणों का ज्ञाता-पहले जो चार तीर्थ कहे हैं, उनका गुण की अपेक्षा दो विभागों में समावेश हो जाता है—(१) साधु और (२) श्रावक । इनमें से साधु के २७ गुण और श्रावक के २१ गुण कहे हैं। सम्यग्दृष्टि को इन गुणों का ज्ञाता अवश्य होना चाहिए, क्योंकि 'अपने सुण की पूजा, निगुनों को पूजे वह पंथ ही दुजा ।' इस समय कितने ही मायावी लोग अपनी उदरपूर्ति के लिए गुणों की प्राप्ति किये बिना ही, श्राक्क
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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