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________________ सम्यक्त्व * हैं कि घर के निकट ठहरे हुए साधु कहा भी है: -- । ६-२३ दर्शन का भी लाभ नहीं लेते । yoहीन को ना मिले, भली वस्तु का जोग । जब द्राक्षा पकने लगी, काग कंठ हो रोग ॥ अर्थात् जब द्राक्षा पकती है तब कौवे को कण्ठमाला रोग हो जाता है, जिससे वह द्राक्षा नहीं खा सकता। हाँ, जब निबोलियाँ पकती हैं तो वह नीरोग हो जाता है । इसी प्रकार जो जीव भारीकर्मा होते हैं उन्हें साधुसमागम, व्याख्यानश्रवण, धर्मलाभ लेन यादि के प्रसंग पर रोग, शोक, रगड़े-झगड़े आदि अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं । किन्तु कर्मबन्ध के कारणभूत तमाशे, जुआ खेल आदि के अवसर पर उनका लाभ उठाने की खूब फुर्सत मिल जाती है ! भव्यो ! सच समझिए । धन-सम्पदा आदि का योग तो अनन्त वार मिल चुका है और फिर भी मिल सकता है, किन्तु संतसमागम और धर्म की साधना करने का योग मिलना अत्यन्त कठिन है । कहा भी है मात मिले सुन भ्रात मिले पुनि, तात मिले मन- वांछित पाई, राज मिले गज बाजि मिलै, सुख साज मिलै युवती सुखदाई । इह लोक मिले परलोक मिलै, सब थोक मिले वैकुण्ठ सिधाई, 'सुन्दर' सब सम्पत्ति मिलै, पन साधु-समागम दुर्लभ भाई ॥ ऐसा समझ कर सम्यक्त्वी जीव, साधु-समागम का अवसर मिलने पर कभी चूकते नहीं हैं । यथोचित सेवा करके और लाभ उठा करके अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं। इसी प्रकार स्वधर्मी श्रावक और श्राविका की
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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