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________________ ६२२ १ 8 जैन-तत्व प्रकाश करना सम्यक्त्व का भूपण है । राजा की सेवा करने से राज्य सुख की प्राप्ति होती है, सेठ की सेवा करने से धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार उक्त चार तीर्थों की सेवा मुक्तिसुख देने वाली है | तीर्थसेवकों का कर्त्तव्य है कि जब साधु-साध्वी का आवागमन हो तो यतनापूर्वक उनके सामने जावें, गुणगान करते हुए ग्राम में प्रवेश करावें, यथोचित स्थानक ( मकान ) आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, औषध आदि वस्तुएँ आवश्यकतानुसार स्वयं देवें, दूसरों से दिलावें, धर्मोपदेश श्रवण करें, उसे धारण करें, यथाशक्ति व्रत नियम स्वयं धारण करे, दूसरों को धारण करने की प्रेरणा करें और तन से, मन से, धन से, यथोचित धर्मसाधना स्वयं करें और दूसरों से करावें । देखिए, प्राचीन काल में साधु ग्राम से बाहर ठहरते थे और श्रद्धालु धर्मात्मा वहाँ भी धर्मलाभ प्राप्त करने के लिए जाते थे तथा सर्वस्व अर्पण करके धर्मोन्नति करते थे । किन्तु आज कल कितने ही भारी कर्मा जीव ऐसे नदी आदि तथा यात्रा करने के तीर्थ वे सब द्रव्यतीर्थं, जिस कर संसार न तीराई, सावद्य कर्त्तव्य कर तीर्थ तौरना नहीं है । जो भावतीर्थ ते चतुर्विध संघज ज्ञानादि कर सहित, अज्ञान नथी, ते माटे जे भावथ की तीरे ते भाव तीरथ, तथा कोधामि दाहा उपशHeat वो लोभतृष्णा टाली वो कर्ममल फेड बुं अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र ए विषे रहीवो तिने भावतीर्थ कही | योगीन्द्रदेवविरचित 'श्री अनुभवमाला' 'अपरनाम 'स्वानुभवदर्पण' का भाषान्तर माणकलाल घेलाभाई ने तथा कपूरचन्द लालन ने मिल कर किया है, जो बम्बई के निर्णयसागर प्रेस में छपा है। उसके पृष्ठ ५२ में लिखा है भकुतीर्थ तहाँ सुधी करे धूर्तता ढंग । सद्गुरु-वचन न सभिले, करे कुगुरुनो संग ||४०|| तीर्थ ने देहरा विषे, निश्चय देव न जाए । जिन गुरु वाणी इम कहें, देह में देव प्रमाण ॥४१॥ तन-मंदिर मां जीव जिन मंदिर मूर्ति न देव । राजा भिक्षार्थे ममे, एवी जनने टेव ॥४२॥ नथी देव देहरा विषे, छे मूर्ती चित्राम । ज्ञानी जाने देवने, मूर्ख भमे बहु ठाम ॥४३॥ खरो देव छे देहमा, ज्ञानी जाणे तेह | तीर्थ देवालय देव नहिं, प्रतिमा निश्चय एह ॥ ४४ ॥
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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