SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 674
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२८ ] 8 जैन तत्व प्रकाश 1 मगर जो अपनी आत्मा को स्थिर करके फिर दूसरे की आत्मा को स्थिर करने का प्रयत्न करेगा, उसी का उपदेश सफल होगा । अतएव सम्यग्दृष्टि को चाहिए कि जब खुद पर रोग, शोक या वियोग आदि के दुःख का प्रसंग आ जाय तो वह स्वयं भी अचल रहे श्रर्थात् न श्रार्त्तध्यान करे, न रौद्रध्यान करे । न शोक करे, न सन्ताप करे, न विलाप करे । घोर संकट में भी सुखमय अवस्था के समान हर्षोत्साह से युक्त बना हुआ अधिक अधिक धर्मवृद्धि करता रहे, जिससे आपका भी कल्याण हो और दूसरों पर भी धर्म की छाप लग जाय । ऐसा व्यवहार करके जगत् के सामने सच्चे धर्मात्मा का आदर्श उपस्थित करे । अपने कुटुम्बी जन अगर आर्त्तध्यान, शोक, सन्ताप करते हों तो उन्हें भी उपालंभ देकर रोके । जो लोग मिलने के लिए आवें, उन सम्बन्धियों और कुटुम्बियों के सामने भी अपने दुःख को प्रकट न करता हुआ उन्हें वैराग्य का उपदेश करे । ऐसे दृढ़धर्मी धर्मात्मा स्वयं भी सुखी होते हैं और दूसरों को भी सुखी रखते हैं। यही नहीं, संकट के समय धैर्य पूर्वक समभाव रखने के प्रताप से घोर कर्मों की निर्जरा करते हैं और अनेकों को कर्मबन्धन से बचाकर, उन्मार्ग में जाने से रोक कर सन्मार्ग में लगाते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के इन पाँच भूषणों- अलंकारों से अपने सम्यक्त्व को भूषित करते हुए, दूसरों के मन को भी सम्यक्त्व की ओर आकर्षित करते हैं । आठवाँ बोल - प्रभावना आठ जिस कृत्य के करने से धर्म का प्रभाव फैले-बढ़े और उस प्रभाव को देख कर दूसरे लोग धर्म की ओर आकर्षित हों, वह प्रभावना कहलाती है । वह प्रभावना निम्नलिखित आठ प्रकारों से होती है: (१) प्रवचन प्रभावना अर्थात् जिनेश्वर भगवान के वचन ( शास्त्र) अर्थात् प्रवचन के प्रभाव को बढ़ाना। वर्तमान काल में शास्त्र की धर्म के
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy