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________________ & सम्यक्त्व के अर्थात-रैवतगिरि (गिरनार पर्वत) पर नेमिनाथ ने, विमलाचल पर युगादि (ऋषभदेव) ने ऋषियों के आश्रम से मुक्तिमार्ग चलाया । (६) नाहं रामो न मे वाञ्छा, भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्थातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा । योगवाशिष्ठ में वसिष्ठऋषि से श्रीरामचन्द्रजी ने कहा-मैं राम नहीं हूँ, मेरी किसी कार्य में इच्छा नहीं है। मैं तो जिनदेव की तरह आत्मशान्ति प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ। (७) दशभिर्मा जित्तै विप्रैः यत्फलं जायते कृते । मुनेरहन्तभक्तस्य, तत्फलं जायते कलौ ॥ - नगरपुराण अर्थात् - कृतयुग में दम ब्राह्मणों को भोजन दंन से जितना फल मिलता था, उतना ही फल कलियुग में अहंन्त भक्त मुनि को भोजन देने से होता है। (8) जैना एकस्मिन्नेव वस्तुनि उभये निरूपयन्ति । -प्रभासपुराण अर्थात् जैन सिर्फ एक ही वस्तु-जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निरूपण करते हैं। (8) दर्शनवर्त्म वीराणां, सुरासुरनमस्कृतः। नीतित्रयकर्ता यो, युगादौ प्रथमो जिनः ।। -मनुस्मृति । अर्थात् वीर पुरुषों को मार्ग बतलाने वाले, देवों और दानवों द्वारा नमस्कार किये हुए, युग की आदि में तीन प्रकार की नीति के स्थापन कर्ता पहले जिन (ऋषभदेव) हुए। (१०) एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्धधारी हरः । नीरागेषु जिनो वियुक्तललनासको न यस्मात्परः ।। --वैराग्यशतक
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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