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________________ 8 जैन-तत्त्व प्रकाश feat अन्यमतावलम्बी जैनधर्म को अर्वाचीन बतलाते हैं और अपने-अपने धर्म को प्राचीन बतलाकर जैनों को श्रद्धाहीन कहते हैं । किन्तु उन्हें जानना चाहिए कि जैनधर्म अर्वाचीन नहीं है । वह अनादि कालीन धर्म है । अनेक निष्पक्ष विद्वानों ने इस सत्य को स्वीकार किया है और जैनधर्म के सिद्धान्तों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए यहाँ कुछ प्रमाण उद्धृत किये जाते हैं: ६१४ ] (१) ॐ नमोऽर्हन्तो ॠषभो वा, ॐ ऋषभं पवित्रम् । - यजुर्वेद ० २५ मंत्र १६ (२) ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् । ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां, सिद्धानां शरणं प्रपद्ये ॥ ऋग्वेद अर्थात् — ऋषभदेव से वर्द्धमान पर्यन्त जो चौबीस तीर्थंकर तीन लोक में प्रतिष्ठित है, मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ । ॐ (३) रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमुपविधीयते । सोऽस्माकं श्ररिष्टनेमिः स्वाहा । — यजुर्वेद, अ० २५ (४) ॐ स्वस्ति नो इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ - ऋग्वेद अष्टक १ अध्याय ६ उक्त दोनों मंत्रों में वाईसवें तीर्थंकर श्रीश्ररिष्टनेमि भगवान् का नाम है । इस प्रकार वेदों में भी जैन तीर्थकरों के नाम पाये जाते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि वेदों की रचना होने से पहले भी जैनधर्म विद्यमान था । पुराणों के कुछ उद्धरण लीजिए: (५) रैवताद्रौ जिनो नेमिः, युगादिर्विमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव, मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ - प्रभासपुराण |
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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