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________________ * सम्यक्त्व * % दान देना बंद हो जाता है, किन्तु अनुकम्पा का झरना सम्यग्दृष्टि के हृदय में निरन्तर झरता रहता है । यह अनुकम्पा ही सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। (५) आस्था-आस्तिश्य-श्री जिनेश्वर-करित शास्त्र के कथन पर और धर्म पर दृढ़ श्रद्धा-प्रतीति रखना आस्था है । कहावत है-'प्रास्ता सुख सासता' अर्थात् आस्था रखने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। आस्था ही मंत्र, यंत्र, तंत्र, जड़ी,बूटी, औषधि व्यापार और धर्म आदि सब पदार्थों का यथा. रूप फल देने वाली है। भूतकाल में हुए अरणक (अईन्नक), कामदेव, मण्डूक, * श्रेणिक महाराज और कृष्ण वासुदेव आदि सम्यग्दृष्टि श्रावक कितनी प्रगाढ़ श्रद्धा के धारक थे! प्राणान्त कष्ट आने पर भी वे धर्म से चलित नहीं हुए। धम से विपरीत स्वांग बनाकर देव, दानव और मानव उन्हें छल नहीं सके। धर्म से अणुमात्र भी डिगा नहीं सके। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी धर्मदृढ़ता से, उन दुःख देने वालों और धर्म से चलित करने का प्रयत्न करने वालों को भी मिथ्यात्य त्याग कर मम्यग्दृष्टि बन जाने का निमित्त दिया और वे स्वयं दृढ़ श्रद्धा वाले बन भी गये । ऐसी दृढ़ आस्था से ही वे जीव एकावतारी अर्थात् एक भव के अन्तर से मोक्षगामी हो गये । किसी-किसी ने सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकरगोत्र का उपार्जन किया। * अरणक, कामदेव, श्रेणिक और श्रीकृष्ण का वृत्तान्त तो बहुत-से जैनी जानते हैं, किन्तु मन्ड्रक श्रावक का कथन उतना अधिक प्रसिद्ध नहीं है। उसका उल्लेख यहा किया जाता है: राजगृही नगरी के गुणमिल नामक चैत्य में श्रमरा भगवान् श्रीमहावीर स्वामी ने पंचास्तिकाय का उपदेश दिया। कालिय आदि अन्य तीर्थी उसे नहीं समझे। उन्होंने समवसरण के बाहर आकर , उपहास करते हुए, दशनार्थ जाने वाले मण्डूक श्रावक से कहातेरे गुरु महावीर तो बड़े गोड़े मारते हैं । आज उपदेश में उन्होंने कहा कि धर्मास्तिकाय गमन करने में सहायता देता है ! किन्तु हम तो उसे कभी देखो ही नहीं हैं ? मण्डकजी विरोपज्ञ न होने से इस कथन को जानते नहीं थे। तब भी उन्होंने अपनी श्रौत्पातिकी बुद्धि से कहा- ह वृक्ष का पत्ता विलये हिलता है ? वे बोले-वायु से । मण्डूकजी बोले-वायु को श्राप देखते हैं क्या ? वे बोले-नही तो । फिर घायु का नाम क्यों लेते हो ? उन्होंने कहा-पत्ता हिलता देखकर अनुमान करते हैं । तब मण्डूकजी ने कहा-जैसे वायु सूक्ष्म है, वैसे ही धर्मास्तिकाय भी सूक्ष्म है । और जैसे वायु पत्ते के हिलने में सहायक है, वैसे ही धर्मास्तिकाय गमन में सहायक है । इत्यादि कथन से उन्होंने उनको मिरुचर कर दिया । भगवान् ने मण्डूकजी की प्रशंसा की।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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