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________________ ६१२ [ * जैन-तत्व प्रकाशे * 3D दाणाण सेढे अभयप्पयाणं । -सूयगडांगसूत्र, अ०६ अर्थात् समस्त दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, इस जिनाज्ञा के अनुसार अभयदान का महान् फल प्राप्त होता है। ___ अगर कोई किसी को चिन्तामणि बतला कर कहने लगे-मैं तुझे यह रत्न देता हूँ, तू इसके बदले अपने प्राण दे दे। तो वह तत्काल चिन्तामणि को फैंक देगा और अपने प्राणों को ही बचाने का प्रयत्न करेगा। इससे जाना जाता है कि तीन लोक की सम्पदा से * भी प्राण अधिक प्यारे हैं । ऐसी स्थिति में अगर थोड़े-से प्रयत्न से अथवा थोड़ा-सा द्रव्य खर्च करने से किसी के प्राण बचते हैं तो इस लाभ का कहना ही क्या है ! 'आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति' अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव सब प्राणियों के प्राणों को अपने प्राणों के समान प्यार करते हैं और जिस सदुपाय से बन सके, उसी सदुपाय से सब को अभय देने की भावना रखते हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष तो कसाई आदि दुष्ट प्राणियों पर भी अनुकम्पा रखते हैं और उन्हें पाप-कर्मों से छुड़ाने का यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं । अगर वह पाप-कर्म का त्याग कर दे तो ठीक; यदि न त्यागे तो उसकी कर्मगति प्रवल जान कर उस पर भी द्वेष नहीं करते हैं । जिस प्रकार गृहस्थ अपने कुटुम्ब को दुःख से बचाने के लिए उपचार करता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि 'मित्ती मे सबभूएसु' अर्थात् सब प्राणियों पर मेरा मैत्रीभाव है, ऐसा मानता हुआ और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् जगत् के समस्त प्राणियों को अपना कुटुम्ब जानता हुआ, उनके हित-सुख की योजना करता है। दान से भी दया-अनुकम्पा अधिक कही गई है, क्योंकि धन समाप्त हो जाने पर *आयुः क्षणलवमात्र; न लभ्यते हेमकोटिमिः क्वापि । तद् गच्छति सर्वमृषत: काधिका हानि ? अर्थात्-करोड़ों मोहरें खर्च करने पर भी पण या लव मात्र भी आयु प्रास नहीं हो सकती, अतएव प्राणबात से बढ़कर कोई हानि कही है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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