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________________ ६०८] * जैन तत्व प्रकाश धारण करना उचित नहीं है ।* शुभ या अशुभ पुद्गलों में राग या द्वेष करना योग्य नहीं है। वे अपने-अपने स्वभाव में वर्त रहे हैं तो मुझे अपने स्वभाव को त्याग कर रागी द्वेषी क्यों बनना चाहिए ? पुद्गल स्वभाव से ही क्षणभंगुर हैं । जरा सी देर में बुरे से अच्छे और अच्छे से बुरे हो जाते हैं । मिष्टान खाते समय अच्छा लगता है और वमन करते समय वही ग्लानि उपजाता है । मृत्तिका और और पत्थर यों पड़े-पड़े खराब लगते हैं; किन्तु कोरनी करके, कुशलता पूर्वक आकृति बनाने से और यथायोग्य स्थान पर लगाने से अच्छे लगने लगते हैं। इस प्रकार जिसका परिणमन होता रहता है, उस पर राग-द्वेष करना वृथा है। इत्यादि विचार करके सम्यक्त्वी जीव प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक घटना में समभाव हो धारण करता है ।। अर्थ के खुटाऊ है जी धन के बटाऊ, होय तो बॅटाय लेंगे मिल के धनार्थी। तरी गति मौन वूझ म्यारथ के माहि रूझ, भव-भव माही उल में कोई न परमार्थी। चेतन विचार चित्त अकेला ही तू है नित्त. उक्ट चलत आणै आप ही अकार्थी । वैरी घर माहे तेरे जानत सनेही मेरे, दारा सुत वित तेरो लूटि लूटि खायगो। और ही कुटुम्ब बहु तेरे चारों ओर हूँ ते, मीठी-मीठी बात कह तो लपटायगो । संकट पड़ेगो जब तेज नहीं कोङ तथ, ___वखत की बेरा कोई काम नहीं पायगो । 'सुन्दर' कहत तू तो याही ते विचार देख । तेरे यह किये कर्म तू ही फल पायगो ॥ * न कश्चित्कम्यचिन्मित्रं, न कश्चित्कस्यचिद् रिपुः । अथेतस्तु प्रवर्त्तन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व अ० १३८ बास्तव में न कोई किमी का मित्र है, न कोई किसी का रात्र है। अपने स्वार्थ से मित्र या शत्रु मन आते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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