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________________ ® सम्यक्त्व [६०६ सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबंधी कपाय का, जो अत्यन्त तीव्र होता है, उपशम, क्षय या क्षयोपशम कर देता है । इस कारण उसके परिणामों में पहले की तरह उग्रता नहीं रहती । वह शम भाव का अपूर्व रस चखता रहता है । (२) संवेग-अन्तःकरण में निरन्तर वैराग्य भाव रहना संवेग कहलाता है। शारीरमानसागन्तोवदनाप्रभवाद् भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पादरतिः संवेग उच्यते ॥ अर्थात्-देह संबंधी रोग आदि दुःख शारीरिक वेदना है । मन संबंधी चिन्ता मानसिक दुःख है और बाहर से अचानक आ जाने वाली विपत्ति आगन्तुक वेदना है । इन सब वेदनाओं के कारणों पर द्वेष न करना । मंसार पर अर्थात् सांसारिक सुखों पर रति भाव न धारण करना तथा स्वप्न और इन्द्रजाल के समान* क्षणभंगुर संसार की सम्पदा पर राग न करना संवेग कहलाता है। यह संसार दुःखों से परिपूर्ण है। कहा भी है- 'संसारम्मि दुक्खपउराए' इस प्रकार का विचार करके सम्यक्त्वी पुरुष संसार के सम्बन्धों से उदास भाव धारण करे, निरन्तर वैराग्य में रमण करे । वही सच्चा संवेगी कहलाता है। -- ॐ एक भिखारी ने राजऋद्धि और हलवाई की दुकान पर घेवर आदि मिटाई देखी। वह भूखा था। मिठाई आदि का विचार करते-करते रसोई बनाने के लिए लाये हुए कंडों (छागों) को सिराने रखकर सो गया। उसने स्वप्न में देखा कि नगर का राजा मर गया है और मैं राजा बन गया हूँ और मिजवानी में पेट भर मिठाई खाकर सो गया हूँ। इतने में किसी की आवाज सुनकर भिखारी की आँख खुल गई । वह रोने लगा। किसी ने रोने का कारण पूछा तो वह बोला-हाय ! मैं लुट गया । मेरी राज ऋद्धि कहाँ चली गई १ खाये हुए घेवर कहाँ गये । यहाँ तो बस, कंडे ही बचे हैं ! अब मैं क्या करू ? उसकी ऐसी बहकी बातें न कर लोग कहने लगे-यह पागल हो गया है। भव्य जीवों ! यह संसार की ऋद्धि आदि सब स्वप्न के ही समान है। इनके चक्कर में पड़ने वालों को अन्त में विस्तारी की तरह हीरोनी पड़ती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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