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* सम्यक्त्व *
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अर्थात् प्राणी मात्र पर मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी भी प्राणी के साथ वैरभाव नहीं है ।
सम्यग्दृष्टि जीव को निश्चय से तो शुभ कर्मोदय होने से सुख की प्राप्ति होती है और व्यवहार से मन के द्वारा किसी का अशुभ चिन्तन न करने से हित, मित, प्रिय, वाणी बोलने से, काया से किसी को दुःख न पहुंचाने से, नम्रतापूर्वक सेवक की भाँति रहने से, सभी प्राणी उसको सुखदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार निश्चय से अशुभ कर्मों का उदय होने से दुःख की प्राप्ति होती है और व्यवहार से, मन के द्वारा दूसरों का अशुभ चिन्तन करने से, वचन से मिथ्या, हानिकारक वचन बोलने से और काय से दूसरों को हानि पहुंचाने या कप्ट देने से वे शत्रु बन जाते हैं और दुःख देने लगते हैं । सम्यग्दृष्टि के अन्तःकरण में यह विवेक जाग जाता है । कदाचित् दूसरे के साथ अच्छा व्यवहार करने पर भी वह सम्यग्दृष्टि के साथ बुरा व्यवहार करता है तो सम्यग्दृष्टि यही सोचता है कि इसके साथ मेरा पहले का वैरानुबंध है, जो इस समय उदय में आया है । किये कर्म का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । कहा भी हैं:कडा कम्माण न मोक्ख
श्रत्थि ।
जो कर्म पहले किया था, उसका फल प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है, तो फिर नवीन राग-द्वेष आदि करके अगर नये कर्म उपार्जन करेगा तो आगे फिर दुखी होना पड़ेगा | जानबूझ कर ऐसा काम करना मेरे लिए उचित नहीं है ।
अगर किसी तरह से सुख प्राप्त हो तो सम्यग्दृष्टि को समझना चाहिए कि यह मेरे कर्मोदय का फल है । मेरा भला या बुरा मैं स्वयं ही कर सकता हूँ । * ऐसा समझकर सम्यग्दृष्टि विवेकशील पुरुष की राग-द्वेष
* सर्वया---
* बाँधा सो हो भोगिये, कर्म शुभाशुभ भाव । फले निर्जरा होत हैं, यह समाधि चित चाव ॥ कौन तेरे मात तात कौन सुत दारा भ्रात,
कौन तेरे न्याती मिले सब ही स्वार्थी ।