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® जैन-तत्त्व प्रकाश
भाव रखे,* अर्थात् मित्र पर मोह-राग न करे और शत्रु का विनाश और नुकसान न चाहना । ऐसे प्रसंग उपस्थित होने पर सम्यक्त्वी विचार करता है कि जो कुछ भी भला, बुरा, नफा, नुकसान, यश, अपयश होता है, उसका प्रधान कारण तो मेरे पूर्वसंचित शुभाशुभ कर्म ही हैं । भला-बुरा करने वाले दूसरे लोग तो निमित्त मात्र हैं। अनाथी मुनि ने श्रेणिक सजा से कहा थाः
अप्पा कत्ता विकता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपढिओ ॥
-उत्तराध्ययन, अ० २० गा. ३७ अर्थात् अगर अपन अपनी आत्मा को सुप्रतिष्ठ करें अर्थात शुभ कर्मों में लगावें तो उन अच्छे कर्मों का फल सुख रूप होने से अपना भात्मा ही मित्र हो जाता है। अगर आत्मा को दुप्रतिष्ठ किया-अशुभ कर्मों में लगाया तो उन अशुभ कर्मों का फल दुख रूप होने से अपना ही आत्मा शत्रु हो जाता है। अतएव सुख और दुःख का कर्ता तथा हर्ता प्रात्मा ही है। संसार का कोई भी बाह्य पदार्थ, हमारे आत्मा की सहायता के विना हमें सुख दुःख का अनुभव नहीं करा सकता।
सम्यग्दृष्टि पुरुष इस तथ्य को भलीभाँति समझता है, इस कारण वह इस प्रकार समभाव धारण करता है:
मिची भे सव्वभूएसु, वेर मज्झ न केणई।
* अच्छी वस्तु को अच्छी जानना और बुरी वस्तु को बुरी समझना सुज्ञ जन का लक्षण हैं । जैसे अग्नि को दाहकता जान कर उससे दूर रहना, विषेली वस्तु का भक्षण न करना आदि । इसे द्वेष नहीं कह सकते । उसी प्रकार पाखंडियों की संगति न करना उनसे द्वेष करना नहीं है और शरीररक्षा के लिए आहार लेना या वस्त्र धारण करना, गुरु का गुणानुवाद करना राग नहीं समझना चाहिए। जिस वस्तु का स्वरूप जैसा है, उसे उसी रूप मैं मानना सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है। अलवच्चा किसी वस्तु में अमनोज्ञ यो मनोज्ञ की कल्पना करके राग-द्वेष नहीं करना चाहिए।