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________________ ५६० * जैन-तत्त्व प्रकाश ® % - - - इस प्रकार की और-और भी अनेक आशंकाएँ करके कितने ही अज्ञानी जीव जिन वचनों को अयथार्थ समझने लगते हैं । 'संकाए नासे सम्मत्तं' आचारांगसूत्र के इस कथन के अनुसार वे अपने सम्यक्त्व को नष्ट कर डालते हैं। ऐसा जान कर सम्यक्त्वी पुरुष मिथ्यात्वियों के कुहेतुओं और कुदृष्टान्तों से प्रभावित होकर कभी भी जिन वचनों में शंकाशील नहीं होते हैं । अगर शास्त्र की कोई बात समझ में नहीं भी आती तो अपनी बुद्धि की कमी मानते हैं, परन्तु जिनवचनों को तो सत्य ही समझते हैं। श्री आचारांग सूत्र में कहा है तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । अर्थात् वही तत्त्व सच्चा और असंदिग्ध है, जो जिनों ने कहा है। सम्यग्दृष्टि का यह मुद्रालेख है। (२) कांक्षा-श्रीजिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रणीत विनयमूलक, दयामय धर्म, सब प्रकार के ढोंग-धतूरों से रहित और सत्य है । इस धर्म को पालने वाला, अन्य मतावलम्बियों के मिथ्याडम्बर या झूठे चमत्कारों से प्रभावित होकर, व्यामोह को प्राप्त होकर, उस मत को ग्रहण करने की अभिलाषा करे तो कांक्षा दोष लगता है । सम्यग्दृष्टि इस दोष से दूर रहता है । वह समझ लेता है कि यह मिथ्या आडम्बर. या चमत्कार आत्मा का कल्याण करनेवाले नहीं हैं। किसी ऊँट ने. हलवाई की दुकान के पास लीड़े किये । उनमें से एक लीडा उछल कर.. चासनी की कढ़ाई में पड़ गया और उस पर शक्कर का गलेफ चढ़ गया। वह लड्डु सरीका बन गया । हलवाई ने उसे लड्डूओं के साथ रख दिया और वह लड्डुओं के भाव में ही विक गया। जहाँ तक गलेफ था वहाँ तक खाने वाले को मजा आया, पर आखिर तो वह लींग ही था। लड्डु में जैसे भीतर-बाहर मिठास होती है, वह उसमें कैसे हो सकती थी। इसी प्रकार चालतपस्वी नाखून बढ़ाना, उलटे लटकना, शरीर मुखाना, पंचामि तक करवा और कन्दमूल अादि का भक्षण करना, वगैरह
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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