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________________ ॐ सम्यक्त्व ५६१1 तप करते हैं । वे कन्दमूल के फलादि के अनन्त जीवों की, अग्नि के असंख्य जीवों की और अग्नि में गिरने वाले अनेक त्रस जीवों की हिंसा करते हैं । वे बेचारे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण दूसरों की देखा देखी अविवेकपूर्वक क्रियाएँ करते हैं और अज्ञान तप से भोले लोगों के दिल में ध्यामोह उत्पन्न करके इस लोक में महिमा-पूजा प्राप्त कर लेते हैं । अज्ञान-कष्ट के प्रभाव से परलोक में वे आभियोग्य (नौकर) जाति के देवों की जाति में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार वे सांसारिक सुख का कुछ अंश तो भले ही पालें, किन्तु चौरासी के चक्कर से छुटकारा नहीं पा सकते । नमिराज ऋषि ने शकेन्द्र से कहा था: मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भंजए । न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घह सोलसिं * ॥ श्री उत्तराध्ययन, अ.ह. ॐ इस गाथा के चौथे पद 'कलं अग्धड़ सोलसिं' का अर्थ 'मोहनगुणमाला' नामक ग्रन्थ के उत्तरार्ध में दिया है । निम्नोक्त सोलह कलाएँ बतलाई गई हैं: (१) चेतन की चेतना अक्षर के अनन्तवें भाग अनावृत (उघड़ी) रहना। (३) यथाप्रवृत्ति करण में वर्षमान परिणाम की धारा होने पर सब कर्मों की स्थिति का क्षय कर के एक कोड़ा कोड़ी सागर से कुछ कम रह जाना । (३। अपूर्वकरण में ग्रंथिभेद करना । (४) अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व को दूर करना। (५) शुद्ध श्रद्धा-सम्यक्त्व की प्राप्ति होना । (6) देशविरति की प्राप्ति होना। (७) सर्वविरति चारित्र के गुण प्रकट होना। (८) धर्मध्यान की एकाग्र घारा बन जाना। (E) क्षपक श्रेणी पर आरोहण होना । (१०) अवेदी होकर शुक्लध्यान की धारा प्रकट होना । (११) सर्वथा लोभ का क्षय हो जाने पर श्रात्मज्योति प्रकट होना। (१२) चार धनघातिया कर्मों का क्षय होना। (१३) केवल ज्ञान की प्राप्ति होना। (१४) शैलेशीकरण की प्राप्ति होकर योगों का निरोध करना। (१५) अयोगी होकर सब कर्मों को नष्ट करना। (१६) सिद्ध-परमात्म पद की प्राप्ति होना।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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