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________________ ५८८[ * जैन-तत्त्व प्रकाश * से मलीन आत्मा आरंभ के कृत्य करने से विशुद्ध नहीं हो सकती। ऐसा करने से आत्मा की मलीनता और अधिक बढ़ती है । श्रात्मा की विशुद्धि निरारंभी कार्य करने से प्रारंभ का त्याग करने से होती है। ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए, मन, वचन काय से आरंभ से निवृत्त होते हैं । जो देव, गुरु तथा धर्म प्रारंभ के काम में रक्त हैं, उनका भी वे त्याग करते हैं, क्योंकि जैसे की उपासना, सेवा, भक्ति, ध्यान, स्मरण, संगति की जाती है, वैसी ही बुद्धि भी हो जाती है । सुना जाता है कि-भ्रमरी लट (द्वीन्द्रिय कीड़े) को पकड़ लाती है और अपने मिट्टी के घर में मूंद देती है और उसके ऊपर गुन-गुनावी रहती है । कालान्तर में उस घर को फोड़ कर वही कीड़ा भ्रमरी बन कर बाहर आता है। बड़े-बड़े शास्त्रवेत्ता, ध्यान का फल और संगति का गुण दिखलाने के लिए यह उदाहरण दिया करते हैं। इसी प्रकार जो मनुष्य अशुद्ध अर्थात् कामक्रोध आदि रिपुओं से ग्रसित देव या गुरु का उपासक बनता है, उनके कहे धर्म का आचरण करता है, वह कामी, क्रोधी आदि होकर मायाजाल में फंस जाता है इसके विपरीत, जो कामादिक शत्रुओं को जीतने वाले देव-गुरु की उपासना करता है, उनके कहे धर्म का आचरण करता है, वह कामादि शत्रुओं का विजेता बन कर इह-परभव में परमानन्दी, परमसुखी बन जाता है । ऐसा जान कर सम्यक्त्वी जीव निरारंभी देव, गुरु, धर्म को* (१) मन से अच्छा समझते हैं (२) वचन से उन्हीं का गुणगान करते हैं और (३) काय से उन्हीं को नमस्कार करते हैं । ऐसा करने से उनके तीनों योगों के व्यापार अर्थात् विचार, उच्चार और प्राचार पवित्र रहते हैं। * भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गर्भवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घनाः । अनुद्धता सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवेष परोपकारिणाम् ॥ अर्थात्-जैसे फल लगने पर वृक्ष नम्र हो जाते हैं, जल से भरे मेघ भूमि की ओर झुक जाते हैं, उसी प्रकार सत्पुरुष सम्पत्ति पाकर नम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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