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________________ [ ५८७ सहायता से हमारा मनोरथ पूर्ण हो सकेगा । मगर आजकल प्रायः उलटा ही मामला देखा जाता है । राजा की तरफ से उपाधियों के रूप में जो पुरस्कार मिलता है, जैसे रायबहादुर, दीवानबहादुर, आदि-आदि इससे सरकार इन उपाधिधारियों को मुफ्त में अपना नौकर बना लेती है और अपने जाल में उन्हें फँसा लेती है । कदाचित् दी हुई उपाधि वापिस छीन ली जाय तो वह दुनिया में मुख दिखाते भी शरमाता है । कभी-कभी तो अपघात करने का भी प्रसंग आ जाता है । और श्रीमंत लोग तो श्रीमंतों कोही पसंद करते हैं और उन्हीं का आदर करते हैं । वे धन के मद में चूर होकर गरीबों को तुच्छ समझते हुए, उनसे बोलने में भी खुश नहीं होते । उनकी सहायता करने की तो बात ही दूर रही ! गरीबों के रक्षक श्रीमान् क्वचित् विरले ही मिलेंगे | मगर सच समझो, वक्त पर गरीब जितना काम आता है, प्रायः श्रीमंत नहीं आता । संसार में सुखोपभोग के जितने पदार्थ हैं, उनमें विशेष हिस्सा गरीबों का ही है । ऐसा जानते हुए भी बहुत-से लोग राजा श्रीमानों का तो विनय करते हैं किन्तु धर्मात्माओं का विनय नहीं करते । गुणी जनों का विनय न करना कितने अफसोस की बात है ! समझना चाहिए कि श्रीमंतों का विनय स्वार्थसाधन का हेतु होने से विनय की गिनती में नहीं आता, उसे तो चापलूसी कहते हैं । सच्चा विनय वह है जो गुणों में वृद्ध जनों का किया जाता है। ऐसे विनय के दस प्रकार हैं:(१) अरिहन्त का विनय (२) सिद्ध का विनय (३) आचार्य का विनय (४) उपाध्याय का विनय (५) स्थविर का अर्थात् ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध और वयोवृद्ध का विनय (६) तपस्वी का विनय (७) समान साधु का विनय (८) गणसम्प्रदायका विनय ( 8 ) साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप संघ का विनय और (१०) शुद्ध क्रियावान् का विनय । - चौथा बोल - शुद्धता तीन * सम्यक्त्व * जिस प्रकार रक्त से भरे वस्त्र को रक्त से ही धोया जाय तो वह शुद्ध नहीं होता किन्तु अधिक मलीन होता है; उसी प्रकार आरंभ - परिग्रह आदि
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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