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________________ ५८६ । ® जैन-तत्त्व प्रकाश के न अधिक समय लगता है और न प्रयास ही करना पड़ता है । वेश्या, नर्तकी आदि का नृत्य और गायन देखने-सुनने का जब प्रसंग प्राप्त होता है, तो मृदंग और तबला में से आवाज निकलती है-डुबक डुबक; अर्थात् डूबे,डूबे । तब मंजीर में से प्रश्न रूप ध्वनि आती है-'कुण कुण ?' अर्थात् कौनकौन ? तब वेश्या मानो इस प्रश्न का उत्तर देती हुई घूम-घूम कर, दोनों हाथ पसार-पसार कर कहती है-'ये जी भला ये !' अर्थात् कुदृष्टि से देखने वाले जितने हैं, वे सभी डूबते हैं। * किन्तु प्रेक्षक लोग इन्द्रियों के विषय में लुब्ध हो, मुग्ध बन कर, परमार्थ की परवाह न करते हुए, वेश्या के कामोचेजक हाव-भाव, कटाक्ष आदि के सन्मुख देखते और प्रसन्न होते हुए, उसके शब्दों में आसक्त होकर प्रसन्नतापूर्वक पतित बनते हैं। इस प्रकार जैसे विषयोत्पादक शब्दों का असर जल्दी होता है, वैसा वैराग्योत्पादक शब्दों का प्रभाव होना कठिन है। जैसे करेला और नीम का कीड़ा कढक रस में ही मजा मानता है उसी प्रकार गुरुकर्मा जीव डूबने में ही मजा मानता है। उसे धर्म कथा के नाम से ही ज्वर चढ़ आता है ! यह मिथ्यादृष्टि के चिह्न हैं । सम्यग्दृष्टि पुरुष पूर्वोक्त कथन के अनुसार जिनवचनों के श्रवण-मनन आदि में मग्न रहते हैं । यह सम्यग्दृष्टि के तीन चिह्न हैं । तीसरा बोलः-विनय दस धर्म का मूल विनय है । जहाँ विनय गुण का अस्तित्व होता है वहाँ अन्यान्य गुण स्वयं आकर्षित होकर चले आते हैं । सम्यक्त्वी पुरुष में विनयनम्रता का गुण स्वाभाविक ही होता है। कितनेक खुशामदी लोग राजाओं के सामने, तथा राजमान्य, श्रीमान्, बलवान् श्रादि के सामने नम्रता धारण करते हैं । वे समझते हैं कि ऐसा करने से हमें सुख की प्राप्ति होगी। इनकी ___* सवैया-नर राम विसार के काम रचे, शुद्ध साधु-कथा न गमे तिनको । दाम दे रामा बुलाय लई, तिहाँ लागे हैं रामा नचावन को । धिक है धिक है मिरदंग कहे, मंजीर कहे किन को किन को ? तब रामा हाथ पसार कहे, इनको इनको इनको इनको ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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