SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सम्यक्त्व [५७७ का क्षय और तीन का उपशम करे तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इस सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर सम्यग्ज्ञान विशेष निर्मल हो जाता है। प्रत्येक जीव को यह सम्यक्त्व असंख्यात वार आता-जाता है । इसलिए इसकी स्थिति असंख्यात काल की कही गई है। (६) वेदकसम्यक्त्व-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से आगे बढ़ने पर और चायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले, सिर्फ एक समय तक वेदक सम्यक्त्व होता है । पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से चार का क्षय करे, दो का उपशम करे और एक (सम्यक्त्वमोहनीय) प्रकृति जो सत्ता में है, उसके रस का वेदन कर; अथवा पाँच का क्षय करे, एक का उपशम करे और एक का वेदन करे, तब वह वेदकसम्यक्त्व कहलाता है । यह सम्यक्त्व जीव को एक ही चार होता है, क्योंकि इस सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव तत्क्षण ही क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । इस वेदक सम्यक्त्व की स्थिति एक समय की है। (७) क्षायिकसम्यक्त्व-वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दूसरे समय में अवश्य ही क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है । पूर्वोक्त सातों प्रकृतियों का पानी से बुझाई हुई अग्नि की तरह क्षय हो जाने पर यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है । यह समकित सादि-अनन्त है। एक बार उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता। क्षायिकसमकिती जीव उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। (१) कारकसम्यक्त्व-पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक तथा छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती साधु में यह सम्यक्त्व पाया जाता है। कारक सम्यक्त्व वाला जीव अणुव्रतों या महाव्रतों का शुद्ध निरतिचार पालन करता है। व्रतप्रत्याख्यान, तप, संयम आदि क्रियाएँ स्वयं करता है और उपदेश द्वारा दूसरों से कराता है। (२) रोचक समकित-चौथे गुणस्थानवी जो जीव श्रेणिक महाराज और कृष्ण वासुदेव की भाँति जिनप्रणीत धर्म के दृढ़ श्रद्धालु होते हैं; तन, मन, धन से जिनशासन की उन्नति करते हैं, चारों तीर्थो के सच्चे भक्त तथा मक्ति से और शक्ति से भी दूसरों को धर्मप्रवृत्ति में लगाने वाले होते हैं, धर्म
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy