SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७८ * जैन-तत्त्व प्रकाश का उद्योत करने में आनन्द मानते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करने में उत्सुक तो होते हैं, पर अप्रत्याख्यानावरणीय कर्मोदय से एक नवकारसी तप भी नहीं कर सकते, उनका सम्यक्त्व रोचक सम्यक्त्व कहलाता है । (३) दीपकसम्यक्त्व-जैसे दीपक दूसरों को प्रकाश देता है, परन्तु उसके नीचे अंधकार बना रहता है, उसी प्रकार कितनेक जीव द्रव्य ज्ञान सम्पादन करके सत्य, सरल, रुचिकर, शुद्ध उपदेश आदि के द्वारा अन्य अनेक व्यक्तियों को सद्धर्म का बोध कराते हैं, धर्मनिष्ठ बनाते हैं, स्वर्ग-मोक्ष का अधिकारी बनाते हैं, किन्तु अपने आपके हृदय में रहे हुए अंधकार का नाश नहीं कर सकते। उन्हें ऐसा अभिमान होता है कि हम तो साधु हो गये हैं; अब हमें किसी प्रकार का पाप नहीं लग सकता। कदाचित् थोड़ा पाप लग भी जाय तो हमारे द्वारा होने वाले उपदेश रूप उपकार से ही वह दूर हो जायगा । इस प्रकार वे अन्तरात्मा में दोषों का डर रखते हुए, व्यवहार न बिगड़े, इस विचार से गुप्त अकृत्य भी कर डालते हैं। ऐसा समकित अभव्य तथा दुर्लभबोधि जीवों को होता है। यह जीव व्यवहार में साधु या श्रावक दिखाई देते हैं तथापि मिथ्यात्व गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ सकते हैं। (४) निश्चयसम्यक्त्व-सम्यक्त्व का घात करने वाली कर्मप्रकृतियों का क्षय करके जिन्होंने आत्मा में सम्यक्त्व गुण प्रकट किया है, वे निश्चयसम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा को देव मानते हैं, स्व-परभेदविज्ञान के दर्शक ज्ञान को गुरु मानते हैं और आत्मा के विशुद्ध उपयोग में रमणतापूर्वक विवेकयुक्त की हुई क्रिया को धर्म मानते हैं । इस प्रकार इन तीन तत्वों में निश्चयात्मक दृढ़श्रद्धालु बनते हैं । कारण-(१) अभव्य जीव ज्ञानादि गुणों की आराधना नहीं कर सकता और भव्य जीवों में भी जिनकी आत्मा विशुद्ध होगई होगी, वे ही स्वभाव से अथवा गुरु के उपदेश से आत्मकल्याण के अभिमुख हो सकते हैं । अतः आत्मा ही देव है । (२) विद्या गुरूणां गुरुः । जो ज्ञानयुक्त-ज्ञानाधिक होता है, वही गुरुपद प्राप्त करने योग्य होता है। अतएव गुरुओं का भी गुरु ज्ञान ही है । (३) शुद्धोपयोगपूर्वक की हुई धमक्रिया निर्जरा का कारण होती है और उपयोग की शुद्धि के लिए ही सब
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy