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________________ ५७६] ® जैन-तत्त्व प्रकाश® (४) उपशमसम्यक्त्व जैसे नदी में पड़ा हुआ पत्थर पानी के साथ बहता हुआ, टकरा-टकरा कर गोलमटोल बन जाता है, उसी प्रकार संसार रूपी नदी में अनादि काल से परिभ्रमण करता हुआ जीव शारीरिक मानसिक दुःखों से तथा क्षुधा, तृषा, शीत, ताप, छेदन, भेदन श्रादि अनेक कष्टों से अकामनिर्जरा रूप अनेक टक्करें खाकर, अनन्तानुबंधी चौकड़ी और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों को राख से ढंकी हुई अग्नि के समान उपशान्त करे-ढंक दे, दबा दे, किन्तु सत्ता में वह प्रकृतियाँ बनी रहें, तब उपशमसम्यक्त्व होता है। यह उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। जैसे बादल पतले पड़ने से सूर्य की किरणें झलकती हैं, उसी प्रकार उपशम सम्यक्त्वी जीव के सम्यग्ज्ञान झलकने लगता है। यह सम्यक्त्व प्रत्येक जीव को जघन्य एक बार और उत्कृष्ट पाँच वार होता है। (५) उक्त उपशम सम्यक्त्व से आगे बढ़ते-बढ़ते क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से अनन्तानुबंधी चौकड़ी और मिथ्यात्वमोहनीय, इन पाँच प्रकृतियों का, पानी से बुझाई हुई अग्नि की तरह क्षय करे और मिश्रमोहनीय, तथा समकितमोहनीय, इन दो प्रकतियों का राख से ढंकी हुई अग्नि की तरह उपशम करे, अथवा छह प्रकृतियों का क्षय करे और एक समकि तमोहनीय का उपशम करे अथवा चार प्रकृतियों नहीं होती तब तक दर्शनमोहनीय का बल मंद नहीं पड़ता अर्थात् इसका क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम नहीं होता । दर्शनमोहनीय के तीन भेद है:-(१) मिथ्यात्वमोहनीय (२)-- मिश्रमोहनीय और (३) सम्यक्त्वमोहनीय । मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल इतने सघन होते हैं कि उनका उदय होने पर जीव मिथ्यादृष्टि ही रहता है। दूसरी मिश्रमोहनीय प्रकृति का उदय होने पर मिश्रसम्यक्त्व होता है । मिथ्यात्व की वर्गणा जब कुछ शुद्ध होती है और कुछ अशुद्ध रहती है, अर्थात् अर्धविशुद्ध रूप धारण करती है तब वह मिश्रमोहनीय कहलाती है। सम्यक्त्वमोहनीय क्षायिक सम्यक्त्व को ढंकने वाली है। इससे सम्यक्त्वगुण का परी तरह घात नहीं होता, किन्तु चल, मल और अगाद नामक सम्यक्त्व में तीन दोष उत्पन्न होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवों के इस प्रकृति का उदय नहीं होता, किन्तु क्षयोपशमसम्यक्त्वी के होता है और इसके उदय से सम्यक्त्व में मलीनता बनी रहती है । जैसे वृद्ध पुरुष के हाथ में रही हुई लकड़ी कॉपती रहती है उसी प्रकार इस प्रकृति के उदय से परिणामों में एक प्रकार की चंचलता-गड़बड़ी बनी रहती है । चल, मल और अगाढ़ दोषों के लक्षण इस
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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