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________________ ® सम्यक्त्व [ ५७५ वास्तविक विवेक नहीं है; ऐसी स्थिति में जीव का जो सम्यक्त्व-मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम होता है, उसे मिश्रसम्यक्त्व कहते हैं । दृष्टान्त -जैसे दही और शक्कर को मिलाकर खाने से खटमीठा स्वाद होता है, इसी प्रकार कोई जीव मिथ्यात्व का त्याग करके, सम्यक्त्व की ओर गमन करता है, प्रतिसमय मिथ्यात्व-पर्याय की हानि करता है और सम्यक्त्वपर्याय डाँवाडोल स्थिति में रहता है । यह स्थिति अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त रहती है । इसी को मिश्रसम्यक्त्व कहते हैं। जैसे प्रातःकाल की संध्या कुछ प्रकाशमय और कुछ अन्धकारमय होती है किन्तु उसमें प्रकाश बढ़ता चला जाता है और थोड़े समय में पूर्ण प्रकाशमय बन जाती है, उसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति करने वाले भव्य जीव का मिश्रसम्यक्त्व उसे शुद्धसम्यक्त्वी बना देता है । और जैसे सायंकाल की संध्या अन्धकार-प्रकाशमय होती है और थोड़ी देर में अंधकारमय हो जाती है, उसी प्रकार मोक्ष नहीं प्राप्त करने वाले किसी भव्य जीव का सम्यक्त्व उसे फिर मिथ्यात्व में पहुँचा देता है । अथवा जैसे गाँव के बाहर किसी साधु का आगमन सुनकर वंदना-नमस्कार करने का अभिलाषी कोई मनुष्य वहाँ गया। वहाँ पहुँचने पर साधु तो मिले नहीं, कोई बाबाजोगी मिले । उनको वंदना-नमस्कार करके सुसाधु को वंदना-नमस्कार करने के समान ही फल समझा । ऐसा समझना मिश्रसम्यक्त्वी का लक्षण समझना चाहिए । यह सम्यक्त्व प्रत्येक भव्य और मोक्षमागी जीव को जघन्य एक बार और उत्कृष्ट १००० वार प्राप्त हो सकता है ।* * अनन्तानुबंधी चौकड़ी और तीन दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का खुलासा इस प्रकार है:-मूलतः मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय। चारित्र का घात करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय और सम्यग्दर्शनगुण का घात करने वाला कर्म दर्शनमोह कहलाता है। चारित्रमोह के भी दो भेद है-कषायचारेत्रमोहनीय और नोकषायचारित्रमोहनीय । कषाय चारित्रमोहनीय के सोलह भेद हैं-अनन्तानुबधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के कोध, मान, मापा और लाभ । इनमें से अनन्तानुबधी के क्रोध, मान, माया, लोभ को अनन्तानुबधी चौकड़ी कहते हैं। यह चौकड़ी यद्यपि चारित्रमोहनीय का भेद हे, पर इसमें दर्शन और चारित्र-दोनों का घात करने की शक्ति होती है। अनन्त काल से आत्मा के साथ जिसका बब चालू हे, और जिसके उदय में सम्यक्त्व एवं सामायिक चारित्र की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, वह अनन्तानुवर्षी चौकड़ी कहलाती है। जब तक यह चौकडी दूर
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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