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________________ ५७४ ] *जैन-तत्त्व प्रकाश * प्रकृतियों का क्षयोपशम यदि नहीं कर सकता । श्रतएव वह व्यवहार से सम्यक्त्व कहलाता हुआ भी निश्चय में मिथ्यात्वी होता है । (२) सास्वादन सम्यक्त्व -- श्रनन्तानुबन्धी चौकड़ी, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहन का उपशम करे और समकितमोहनीय का विशेष उदय हो तब वह सम्यक्त्व प्रतिपाति (पडीबाई ) होता है । दृष्टान्त - जैसे कोई मनुष्य ऊँचे प्रासाद पर से पृथ्वी का अवलोकन कर रहा हो और चक्कर आने से नीचे गिर पड़े, किन्तु प्रासाद से नीचे गिर जाने और पृथिवी पर पहुँचने से पहले जब वह मध्य में होता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व से पतित हो जाने और मिथ्यात्व को प्राप्त होने से पहले जीव की जो अवस्था होती है, वह सास्वादन क Cs सम्यक्त्व कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जीव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त होने पर चतुर्थ गुणस्थान रूप प्रासाद पर चढ़ा था, किन्तु अनन्तानुबंधी चतुष्क कषायोदय रूप चक्कर थाने से नीचे गिरा, किन्तु मिथ्यात्व रूपी पृथिवी को प्राप्त नहीं हो पाया, तब तक वह सास्वादनसम्यग्दृष्टि है । अथवा जैसे अम्रवृक्ष से अनन्तानुबंधी चतुष्क रूप वायु के झौंके से फल टूटा किन्तु जब तक पृथ्वी पर नहीं जा पड़ा, इसी प्रकार जो सम्यक्त्व अनन्तानुबंधी चौकड़ी के उदय से च्युत हो गया किन्तु मिथ्यात्व रूप में परिणत नहीं हुआ तब तक वह सास्वादन गुणस्थान कहलाता है । जैसे वमन होने पर मिष्ट भोजन का गुड़चटा स्वाद कुछ समय तक रहता और फिर नष्ट हो जाता है अथवा डंके की चोट लगने से मुक्त हुई घड़ी की झनकार किंचित् काल रहती है और फिर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार सास्वादन सम्यक्त्व भी अधिक से अधिक छह श्रावलिका और सात समय तक रहता है और फिर नष्ट हो जाता है । प्रत्येक जीव को इस सम्यक्त्व की प्राप्ति जघन्य एक वार और उत्कृष्ट पाँच वार होती है । (३) मिश्र सम्यक्त्व - मिध्यात्वमोहनीय के दलों को भोगते-भोगते जब वे थोड़े रह जाते हैं तब शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म पर द्वेष भाव भी नहीं और आस्था भी नहीं, इसी प्रकार कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर अन्तरंग से अनुराग भी नहीं और पक्की आस्था भी नहीं है, क्योंकि दोनों का.
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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