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________________ * सम्यक्त्व* [५७३ संन्यासी के समान या मरीचि के समान मिथ्यादृष्टि का वेष धारण कर रक्खा है, वह जीव निश्चय में तो सम्यक्त्वी है और बाह्य व्यवहार से मिथ्यात्वी कहलाता है। ऐसे जीव का सम्यक्त्व मिथ्यात्व-सम्यक्त्व कहलाता है। तथा अभव्य जीव सत्संगति आदि निमित्त पाकर पौद्गलिक सुख प्राप्त करने का तथा मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने का अभिलाषी बना हुआ व्यवहार से श्रावक या साधु के लिंग तथा व्रत को धारण कर लेता है और ऊपरी शुद्धिपूर्वक पालन भी करता है। नव पूर्वो तक का ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है, किन्तु अभव्यता रूप स्वभाव के कारण सम्यक्त्व का आवरण करने वाली कर्म वेदनीय आदि प्रशस्त कर्मप्रकृतियों का समय-समय में वृद्धि पाता हुआ गुड़, शक्कर, मिश्री और अमृत के समान चतु:स्थानपतित अनुभागबंध और (४) सातावेदनीय आदि अप्रशस्त कर्मप्रकृतियों काअनन्तगुणा घटता हुआ नीम, कांजी के समान अनुभाग । यह चार आवश्यक होते हैं। अधःप्रवृत्तिकरण का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होने के पश्चात् दूसरा अपूर्वकरण होता है। इसमें अनेक जीवों की अपेक्षा तो लोक से असंख्यातगुणी परिणामों की धारा होती है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा अन्तर्मुहूत के समय परिमित परिणाम होते हैं । समय-समय परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है। प्रथम समय के परिणाम की अपेक्षा दुसरे समय के परिणाम की विशुद्धि असंख्यातगुणों होती है। इस प्रकार प्रतिसमय परिणामों की अपूर्वता होने के कारण इसे अपूर्वकरण कहते हैं। इस परिणाम में प्रवृत्ति करने वाला जीव, मिथ्यात्व मोहनीय को मिश्रमोहनीय के रूप में परिणत करके फिर समकितमोहनीय के रूप में परिणत कर देता है। यहाँ भी चार आवश्यक होते हैं-(१) गुणश्रेणि (२) गुणसंक्रमण (३) स्थितिखण्डन और (४) अनुभागखण्डन । पहले बंधे हुए और सत्ता में रहे हुए कर्म परमाणु रूप द्रव्यों को निकाल कर पंक्तिबद्ध समय-ममय में असंख्यातगुणी निर्जग का होना गुणश्रेणी है। समय-समय में कम से, विवक्षित कमप्रकृति के परमाणुओं को अन्य सचा में रही प्रकृति के रूप में पलटाना गुणसंक्रमण है। इस पलटाई हुई अशुभ प्रकृति की स्थिति को कम करना स्थितिखण्डन है और पहले के सत्ता में विद्यमान अशुभ प्रकृति के अनुभाग को कम करना अनुभाग खण्डन है । यह चार बातें अपूर्वकरण में अवश्य होती हैं। इस प्रकार अशुम प्रकृति का अनुमाग अनन्तगुणा कम होता है और शुभ प्रकृति का अनुभाग अनन्त-अनन्त गुण वृद्धि को प्राप्त होता है। यों अनिवृत्ति करण के अंतिम समय में दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबंधी चतुष्क के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध के उदय की योग्यता नष्ट होते ही यह उपशात हो जाती हैं तब आत्मा जिनप्रणीत तखार्थ का श्रद्धान यथातथ्य करता हुआ सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर उपशमसम्यक्त्वी बन जाता है । इस कथन पर दीर्घदृष्टि से विचार करने पर ध्यान आएगा कि आत्मा को सम्यक्त्व की प्रालि होना कितना कठिन है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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