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*जैन-तत्व प्रकाश **
सदा आनन्दमय मुखमुद्रा होनी चाहिए । अन्तःकरण ही साक्षीभूत हो जाय कि मेरी भलाई का समय प्राप्त हो गया है । स्वाभाविक रीति से ही अन्तर में विनयभाव- करुणा का भाव जागृत हो जाय । अपना और दूसरे का कल्याण चाहे । श्रभिमान-अकड़ न करे। जिसके हृदय में द्वितीया के चन्द्रमा के समान ज्ञान की किरणों उदित हो गई हों; ऐसे जीव किसी की जबर्दस्ती से नहीं, किन्तु अपने ही उत्साह से कर्मशत्रुओं के सामने उपस्थित होकर, संसार के मायाजाल में फँसाने वाले मोहनीय कर्म के फंदों को नष्ट कर डालते हैं, जिससे दुर्गति के गमन का नाश हो जाता है और सुगति में बास होता है । वे समस्त दुःखों का क्षय करके परम सुखी बन जाते हैं ।
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सम्यक्त्व के सात प्रकार
(१) मिथ्यात्व - सम्यक्त्व - किसी जीव के मोहनीय कर्म को साथ प्रकृतियों का क्षयोपशम आदि हो गया है और उसने सम्यक्त्व का स्पर्श. कर लिया है, किन्तु मिथ्यात्वी सरीखे बाह्य कृत्य कर रहा है और अम्बड
अनुभाग को, जो हलाहल विष के समान था उसे नीम तथा काजी के समान करने की योग्यता प्राप्त करे सो प्रयोगलब्धि है । (यह लब्धिं भव्य और भव्य दोनों के होती है ।)
(५) इस प्रयोगलब्धि के प्रथम समय से लगाकर पूर्वोक्त एक कोड़ाकोडी सागरोपम में, कुछ कम स्थिति रक्खी थी, उसे (आयुकर्म को छोड़ कर ) पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी कम करे इस प्रकार जब ७००-८०० सागरोपम कम हो जाय तब पाँचवी करणालब्धि प्राप्त होती है । (यह लब्धि भव्य जीव को ही प्राप्त होती है ।) यहाँ तीन कारण होते. हैं- (१) अघः प्रवृत्तिकरण (२) अपूर्व करण और (३) अनिवृत्तिकरण । (कषाय की मन्द्रता को करण कहते हैं । इन तीन करणों में से अतिवृत्तिकरण का काल सिर्फ अन्तर्मुहूर्त का है। पूर्वकरण का काल इससे असंख्यातगुणा और अधःप्रवृत्तिकरण का काल पूर्वकरण से संख्यातगुण हैं। यातगुणा या संख्यातगुणां को भी हो समझना चाहिए क्योंकि न्तमुहूर्त के सख्यात भेद होते हैं ।) इस कंरब्ध की प्राप्त हुए तीनों का वर्त्ती अनेक जीवों की विशुद्धता रूप परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं । वैंपरि
प्रवृत्तिकरण के जितने समय हैं, उनमें से प्रत्येक में वृद्धि पाते हैं। किसी समय नीचे के raat farah ले से ऊपर के परिणामों को विशुद्धता मिल जाती है इस कारण इसे अधःप्रवृत्तिकरण कहते हैं। इस करण में चार बातें होती हैं:--(स) प्रतिसमंस अनन्तगुण विद्युता की (२) पूर्वोक्त स्थितिबंध से घटता-पटता स्थिति(३) साधा