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________________ २५–अज्ञान मिथ्यात्व मिथ्यात्व के साथ अज्ञान की नियमा है अर्थात् जिसकी आत्मा में मिथ्यात्व है, उसकी आत्मा में अज्ञान होता ही है। मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से सब विपरीत ही प्रतिभासित होता है। इस हुंडावसर्पिणी काल में मिथ्यात्व का जोर बढ़ा हुआ दिखाई देता है। इस कारण सत्शास्त्रों से विरुद्ध ही नहीं बल्कि प्रकृति से भी विरुद्ध अनेक मत प्रचलित हो गये हैं। जिथर देखो उधर मान-सन्मान ही बीमारी लगी दीखती है । जरा-सी वाक्याडम्बर की कला प्राप्त हुई कि कुबुद्धि द्वारा, कुकल्पनाएँ करके प्राप्त पुरुषों के सिद्वान्त को तोड़-मरोड़ कर कल्पित पंथ स्थापित कर लिए जाते हैं। भोले लोग उनके माया जाल में या किसी प्रकार के लालच में फंस जाते हैं और फिर वे धर्म के प्रवर्चक कहलाने वाले लोग धर्म की ओट में मनमाना शिकार करते हैं। अभी थोड़े ही दिनों में एक सत्पंथी मत चालू हुआ है । उनका रहनसहन तो सारा हिन्दुओं जैसा है, किन्तु करणी मुसलमानों जैसी है ।* ऐसे और भी अनेक मत प्रचलित हैं । अज्ञान के कारण मिथ्यात्व में फंसे हुए लोगों को देखकर श्रीजिनशासन के अनुयायों को सावधान रहना चाहिए • * इन सत्पंथी लोगों ने हिन्दु धर्म के ग्रंथों में फेरफार करके नये ग्रंथों की रचना की है। यह रचना इस्लाम धर्म की किताबों से बहुत मिलती-जुलती है। उन्होंने लिखा हैमच्छ, कच्छ आदि अवतारों में जो निकलंकी अवतार हुआ है, वह इस्लामधर्म के चौथे खलीफा 'अली' थे। इन्होंने काशी विश्वनाथ नाम धारण करके कालिग दैत्य को मारने के लिए फिर अवतार लिया। इनके पुत्र हसन और हुसेन थे । इनके वंशज उप-अवतार इमाम थे। यह लोग मूसा नबी कृत तोरेत किताब को ऋग्वेद कहते हैं। दाऊद नवी कृत जंबूर किताब को यजुर्वेद कहते हैं । इसारूह अल्ला कृत इंजील किताब को सामवेद कहते हैं और पैगम्बर मुहम्मद कृत कुरान को अथर्ववेद कहते हैं। इनके कथनानुसार पहले के तीन वेदों के अनुसार की हुई पूजा भूत-पिशाचों को पहुँचती है और चौथे वेद के अनुसार की पूजा नारायण को पहुँचती है । ऐसी पूजा करने वाला जिनत स्वर्ग) को जाता है। ब्रह्मा-इन्द्र (इमामशाह) कृत श्री बुद्धावतार ग्रंथ में लिखा है कि नौवाँ बुद्धावतार मुसलमान का रूप धारण करके पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में आये और गुरुहला तथा मोमबहलाकपा
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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